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अष्टमं पर्व
१५७ या जिगाय निशानाथं वक्त्रेण नेत्रतो मृगीम् । रति रूपेण गत्या च दन्तावलवधू सदा॥ धृतराष्ट्रेण गान्धारी विवाहविधिना वृता। यशस्वतीव पुरुणा शतपुत्रा भविष्यति ॥ ११०. अथो कुमुद्वती नाम देवकक्षितिपात्मजा। विदुषा विदुरेणापि प्रेमतः पर्यणीयत ॥ १११ अथैकदा मुदा सुप्ता शयनीये निशान्तिमे। यामे ददर्श सुखमानिति कुन्ती सुमानसा ॥११२ मातङ्गमदसंलिप्तगण्डमुद्दण्डमुत्करम् । वाड़ि गम्भीरनादाढ्यं जलकल्लोलशालिनम् ॥ ११३ . जैवातृकं सज्ज्योत्स्नं च जगदानन्ददायकम् । कल्पवृक्षं चतुःशाखं ददतं चार्थिने धनम् ॥ प्रबुद्धा वीक्ष्य सुस्वमान्गता पाण्डे सुमण्डिता। मण्डनैर्वरवस्त्रैश्च कुन्ती सत्कुन्तलावहा॥११५ नत्वाद्धासनमारूढा पृच्छन्ती स्वमजं फलम् । तेनोचे गजतः पुत्रो भविता ते वरानने ॥ . सांगरादतिगम्भीरो गभीरधिषणाधरः। हिमांशोगदानन्दं दास्यतीति स्फुटं प्रिये ॥११७ कल्पशाखिफलं विद्धि सुतस्ते वाञ्छितार्थदः। चतस्रो वीक्षिताः शाखास्त्वया तत्र सुशोभनाः॥ तद्भातरस्तु चत्वारो भवितारः सुजित्वराः। एवं श्रुत्वा सती कुन्ती मुमुदे मुग्धमानसा ॥
शीलको पालनेवाली, विद्वानों द्वारा सुशिक्षित मनवाली गांधारी नामक कन्या थी। वह सदा अपनी मुखशोभासे चन्द्रको, अपने नेत्रोंसे हरिणीको, रूपसे रतीको, और गतीसे गजवधूको अर्थात् हथिनीको जीतती थी। आदिभगवानने जैसे यशस्वतीके साथ विवाह किया था और उनको सौ पुत्र हुए थे वैसे धृतराष्ट्रने गांधारीके साथ विवाहविधिके अनुसार विवाह किया और धृतराष्ट्रके संगसे उसको सौ पुत्र उत्पन्न होंगे। धृतराष्ट्रके विवाहानंतर देवकराजाकी कन्या कुमुद्रतीके साथ विदुरका प्रेमसे विवाह हुआ ॥ १०८-१११॥ किसी समय शुभ विचारवाली कुन्ती शय्यापर सोयी थी। उसने रात्रकि पश्चिम प्रहरमें शुभ स्वप्न देखें । वे इस प्रकार थे- मदसे जिसका गण्डस्थल लिप्त हुआ है और जिसने अपनी बडी शुण्डा ऊपर उठाई है ऐसा हाथी, गंभीर गर्जना करनेवाला और जलकी लहरियोंसे शोभनेवाला समुद्र, जगतको आह्लादित करनेवाला ज्योस्नापूर्ण चंद्र, याचकोंको धन देनेवाला चार शाखाओंसे युक्त कल्पवृक्ष इन चार स्वप्नों को देखने पर वह जागृत हुई। तदनंतर सुकेशी, उत्तम अलंकार और वस्त्रोंसे भूषित कुन्ती पाण्डुराजांके पास गई। राजाको उसने नमस्कार किया, उसने कुन्तीको असनपर बैठाया। तब उसने राजाको स्वप्नोंके फल पूछे। राजाने कहा हे सुमुखि, गजस्वप्नसे तुझे पुत्र होनेवाला है। समुद्रस्वप्नसे वह अतिशय गंभीर प्रकृतिका विद्वान् होगा, और चंद्रस्वप्नसे होनेवाला पुत्र निश्चयसे हे प्रिये, जगतको आनंद देनेवाला होगा। कल्पवृक्ष देखनेका फल यह है, कि जो तुझे पुत्र होगा वह इच्छित पदार्थों को देनेवाला होगा और उसकी जो चार सुंदर शाखायें देखी गई हैं उनसे होने वाले पुत्रके चार भ्राता जो शत्रुको जीतेंगे, उत्पन्न होनेवाले हैं। स्वप्नके ये फल सुनकर मुग्धचित्तवाली पतिव्रता कुन्ती आनंदित हुई ॥११२-११९॥
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