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________________ १५६ पाण्डवपुराणम् तद्वक्त्राब्जाद्रसामोदं संहरमातृपन्नृपः । चञ्चरीक इवाम्भोजान्मारसेवा न तृप्तये ॥ ९८ कटाक्षवीक्षण रम्यैः स्मितैश्च कलभाषणः । बबन्ध सा मनस्तस्य स्वस्मिनत्यन्तसुन्दरैः ॥ मनस्विनी मनोवघ्नात्कामपाशायिते लघु । कण्ठे बाहुलते तस्य गाढमासज्य कामिनी।। स्पर्श च कोमले पाणौ सौगन्ध्यं च मुखाम्बुजे । शब्दमालपिते तस्या देहे रूपं न्यरूपयत्।। तर्पयामास निशेषं सोऽक्षग्रामं विशेषवित् । प्रेप्सोरैन्द्रियिकं सातं गति तः पराङ्गिनः॥ तद्वध्वमृतमासाद्य रोगीव दिव्यभेषजम् । सेवमानः स कालेऽभूत्सुखी निर्मदनज्वरः ॥१०३ कदाचित्सदनोद्याने रेमेऽसौ युवायुतः । कदाचिद्बहिरुद्याने वल्लीवेश्मविराजित ॥ १०४ क्रीडाद्रौ स कदाचिच्चाक्रीडयत्कामिनीद्वयम् । कदाचिद्विजहाराशु नदीपुलिनभूमिषु ॥ दीर्घिकासु कदाचित्स ताभ्यां चिक्रीड वारिभिः । कदाचिद्गन्दुकक्रीडांचकार क्रीडितप्रियः।। एवं तथाविधै गर्जिनेन्द्रमहिमोत्सवैः । सत्पात्रदानतो निन्ये कालस्तेषां महान्किल ॥ अथ भोजकवृष्णेश्च सुता सच्छीलशालिनी । गान्धारी गुणगांधारी बुधबोधितमानसा॥१०८ है कि कामसेवा कभीभी तृप्ति उत्पन्न नहीं करती है ॥ ९७-९८ ॥ सुंदर कटाक्ष, मधुर हास्य मधुर भाषण, इन अत्यंत मोहक उपायोंसे कुन्तीने अपने विषयमें पाण्डुराजाका मन बांध लिया। पाण्डुराजाके गलेमें कामपाशके समान अपने दो बाहुपाश कुन्तीने गाढ बांधकर उसका मन शीघ्र बांध दिया । अर्थात् अपने बाहुपाशोंसे पाण्डुराजाके गलेको आलिंगन देकर उसके मनको अपनेमें कुन्तीने अत्यंत अनुरक्त किया। उस पाण्डुराजाने कुन्तीके कोमल हस्तोंमें स्पर्श, उसके मुखकमलमें सुगंध, उसके मधुरस्वरमें शब्द, और उसके देहमें रूपका अनुभवन किया। इस प्रकार कामका विशेष स्वरूप जाननेवाले पाण्डुराजाने अपनी दो पत्नीओंके साथ भोग भोगकर अपने संपूर्ण इन्द्रियोंको तृप्त किया। योग्यही है कि ऐन्द्रिायक सुखको प्राप्त करनेकी उत्कट इच्छावाले प्राणीको इससे दूसरा उपाय नहीं है ।। ९९- १०२ ॥ जैसे रोगी मनुष्य दिव्य औषधका सेवन कर योग्य कालमें ज्वररहित होकर सुखी होता है वैसे उन दो वल्लभारूपी अमृतको पाकर और उसका योग्य कालमें सेवन कर वह मदनज्वररहित और सुखी हुआ ॥ १०३ ॥ पाण्डुराजा कभी अपने महलके बगीचेमें अपनी प्रियाके साथ क्रीडा करता था और कभी नगरके बाह्य उद्यानके सुंदर लतागृहोंमें रममाण होता था। कभी कभी क्रीडापर्वतपर अपनी दोनों वल्लभाओंको रमाता था। और कभी नदीके सिकतास्थलोंमें वह क्रीडा करता था ॥ १०४-१०५॥ वह पाण्डुराजा कभी उन वल्लभाओंके साथ जलक्रीडा करता था, और कभी कभी अपनी स्त्रियोंके साथ वह कंदुकक्रीडा करता था। इस प्रकार अनेक भोग भोगते हुए जिनेन्द्रके प्रतिष्ठोत्सव करते हुए उन्होंने दीर्घकाल व्यतीत किया ॥ १०६-१०७ ॥ [धृतराष्ट्र और विदुरका विवाह ] - भोजकवृष्टि राजाकी गुणोंसे श्रेष्ठ और उत्तम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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