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________________ अष्टम पर्व १५५ आभ्यां द्वाभ्यां सखि ब्रूहि किं कृतं सुकृतं द्रुतम् । पूर्वजन्मनि येनायं वरो लब्धो विचक्षणः ।। दत्तं दानं सुपात्रेभ्यस्तपस्तसं सुदुःकरम् । किं वाभ्यां भक्तिभारेण सेवितः श्रीगुरुर्महान् ॥८९ चैत्यालयेऽथवा बाले वर्यया च सपर्यया । चेकीयितो जिनो देव आभ्यां सभ्यसमक्षकम् ॥ अहार्याचर्यचर्या च चरिताभ्यां शुभेच्छया । अन्यथा कथमीदृक्षं मृगाक्षं वरमाप्नुयात् ॥९१ अखण्डमण्डलं ग्लौवत्पाण्डोच्छत्रं सुपाण्डुरम् । पिण्डीकृतं यशोवृन्दमिव संशोभते शुभम् ॥९२ अनेन पाण्डुनाखण्डखण्डं नीताश्च दस्यवः । शस्त्रसंघातघातेन घातिनाद्य सुघस्मराः ॥१३॥ इत्थं संस्तूयमानोऽसौ जनैः प्राभूतहस्तकः । सुन्दर मन्दिरं प्राप पाण्डुः प्रबलशासनः ॥९४ तयोः स्वमन्दिराभ्यर्णमाकीर्णे पूर्णसंपदा । निकेतने सुकेत्वाट्ये ददौ वासाय भूपतिः ॥९५ ताभ्यां भोगान्परान्भूपो बुभुजे भोगवित्सदा । गरीयः सुकृतं यस्य किं तस्य स्याद्दरासदम्।। सुकुन्तीस्तनसंस्पर्शात्तदास्याजसुपानतः । तस्याभून्महती प्रीतिः प्रेम्णे वस्त्विष्टमानसम् ॥ जन्ममें शीघ्र कौनसा पुण्य किया था, जिससे इन दोनोंको यह चतुर वर-पति प्राप्त हुआ है। इन दोनोंने सुपात्रोंको दान दिया होगा, दुष्कर तप तपा होगा। अथवा इन दोनोंने आतिशय भक्तिसे महान् श्रीगुरुकी सेवा की होगी, अथवा इन दो कन्याओंने जिनमंदिरमें उत्तम प्रभावक पूजाके द्वारा जिनदेवकी आराधना सभ्योंके समक्ष बारंबार की होगी। अथवा अहार्य-दृढ और आचर्य-आचरने योग्य ऐसी चर्या-आर्यिकाका चरित्र इन दोनोंने शुभ-पुण्यकी इच्छासे पाला होगा अन्यथा इस प्रकारका हरिणनेत्र वर इनको कैसे प्राप्त होता ? ॥८८-९१॥ यह पाण्डुराजाका शुभ्र छत्र चंद्रके समान अखंडमंडल है, और मानो इकट्टा हुआ उसहीका शुभ यशःसमूह शोभने लगा है। घात करनेवाले इस पाण्डुराजाने शस्त्रोंके आघातसे पापी भक्षक शत्रुओंके टुकडे टुकडे कर दिये हैं। इस प्रकार हाथोंमें भेट लिए हुए लोगोंके द्वारा प्रशंसित हुआ, जिसकी आज्ञा कठोरअनुलंघनीय है ऐसा पाण्डुराजां अपने सुन्दर महलको प्राप्त हुआ ॥ ९२-९४ ॥ पाण्डुराजाने अपने महलके समीपही पूर्ण संपदासे भरे हुए उत्तम वजोंसे भूषित ऐसे दो महल कुन्ती और मद्रीके निवासार्थ दिये। भोगोंका स्वरूप जाननेवाला पाण्डुराजा उन दोनों रानियोंके साथ हमेशा उत्कृष्ट भोग भोगने लगा। योग्यही है, कि जिसका विशाल पुण्य है उसको कौनसी वस्तु या भोगसामग्री दुर्लभ होगी? ॥ ९५-९६ ॥ कुन्तीके स्तनस्पर्शसे, और उसके मुखकमलके प्राशन करनेसे उसको अत्यंत हर्ष हुआ। मनकी इष्ट वस्तु प्राप्त होनेपर वह प्रीतिके लिये होती है अर्थात् इष्ट वस्तु प्राप्त होनेपर मन अतिशय हर्षित होता है । भौंरा जैसे कमलके सुगंधसे तृप्त नहीं होता है, वैसे कुन्तीके मुखकमलसे रसका सुगंध ग्रहण करनेवाला पाण्डुराजा तृप्त नहीं हुआ। योग्यही ग प्रेम्ले वास्त्वष्टमानसम्, स प्रेम्लेव श्लिष्टमाश्रितम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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