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पाण्डवपुराणम् कौरवान्धेरसौ बालो हिमद्युतिः समुद्ययौ। पुरे सान्तःपुरे मोदमित्युत्पाघ महामनाः ॥ बन्धुता युधि संस्थैर्या युधिष्ठिरं तमाह्वयत् । गर्भस्थे धर्महेतुत्वात्तस्मिंस्तं धर्मनन्दनम् ॥१४२ बन्धुताकैरवानन्दं स तन्वन्कौरवाग्रणीः । वैरिवंशतमो धुन्वन्ववृधे बालचन्द्रमाः॥१४३ असौ स्तनन्धयस्स्तन्यं मातुर्गण्ड्रषितं यशः। समुगिरन्भजन्दिक्षु यथा दीप्त्या च दिद्युते ।। हसितैः सस्मितर्मुग्धै रिङ्खणैर्मणिकुट्टिमे । मन्मनाभाषणैः प्रीति पित्रोः सममजीजनत् ॥१४५ वृद्धौ तस्याभवद्वद्धिर्गुणानां सहजन्मना । सोदर्यात्तस्य ते नूनं तद्वद्धयनुविधायिनः ॥ १४६ अन्नाशनसुचौलोपनयनादीन्क्रियाविधीन् । अनुक्रमाद्विधानज्ञो जनकोऽस्य व्यजीजनत् ।।१४७ ततः क्रमेण संलय लचिताखिलदिग्यशाः। बाल्यकौमारकावस्थां यौवनस्त्रो बभूव सः॥ सैव वाणी कला सैव विद्या सा द्युतिरेव सा। शीलं तदेव विज्ञानं सर्वमस्य तदेव तत् ॥ १४९ तस्य मूर्द्धा समुत्तुङ्गो मौलिमण्यंशुनिर्मलः। सचूलिक इवाद्रीन्द्रकूटो भृशं समद्युतत् ॥ १५०
के समान उदित हुवा ॥१४०-१४१॥ जब यह बालक गर्भमें था तब बंधुवर्ग युद्धमें स्थिर हुआ, अतः उसने इसका नाम युधिष्ठिर कर दिया और गर्भावस्थामें आतेही इसने बंधुवर्गमें धर्माचरणबुद्धि निर्माण की अतः उसने इसका 'धर्मपुत्र' यह नाम रक्खा ॥१४२॥ बंधुरूपी कमलोंके आनंद को वृद्धिंगत करनेवाला कौरववंशका अग्रणी यह बालचन्द्र शत्रुवंशरूपी अंधकारको नष्ट करता हुआ बढने लगा ॥१४३।। माताका स्तनपान करनेवाला यह बालक उसका स्तनदुग्ध अपने मुखमें लेकर जब बाहर निकालता था तब ऐसा प्रतीत होता था मानो सब दिशाओंमें अपना यशही विभक्त कर रहा है तथा अपनी कान्तिसे भी वह शोभने लगा। स्पष्ट हंसना, गालमें हंसना, रत्नजडित जमीनपर घुटनोंसे मधुर चलना, अस्पष्ट तुतली वाणीसे बोलना इत्यादि क्रीडाओंसे उस बालकने मातापिताको एकसाथ आनंदित किया ॥ १४४-१४५॥ उस बालककी शरीरवृद्धिके साथ उसके सहज गुणोंकीभी वृद्धि होने लगी; क्योंकि वे गुण शरीरवृद्धिके सोदर अर्थात् भाईही थे । इसलिये शरीरवृद्धिका अनुसरण करके वे भी बढने लगे ॥१४६॥ उसका पिता अर्थात् पाण्डुराजा संस्कारविधिका ज्ञाता था अतएव उसने उस बालकके अनुक्रमसे अन्नाशन, चौल, उपनयनादिक संस्कार पुरोहितके द्वारा करवाये ॥१४७॥ जिसके यशने संपूर्ण दिशाओंका उल्लंघन किया है, ऐसे उस बालकने (युधिष्टिरने) बाल्यावस्था और कौमारावस्थाको लांघकर यौवनावस्थामें प्रवेश किया ॥१४८॥ उस युधिष्ठिरको यौवनावस्था प्राप्त होनेपरभी वाणी वही थी, कला वही थी, विद्या और कान्तिभी वही थी, शीलभी वही था और विज्ञानभी वही था अर्थात् उसके साथ मदअभिमानादिक दुर्गुणोंका आगमन नहीं हुआ। वाणी वगैरे जो सुगुण पूर्वमें थे वेही अबभी उसमें थे। दोषों का आगमन नहीं हुआ ॥ १४९॥ किरीटकी मणिकिरणोंसे निर्मल कान्तिवाला उसका उन्नत मस्तक चूलिकायुक्त मेरुपर्वत के शिखरसमान अतिशय सुंदर दीखता था॥१५०॥ पूर्ण शोभाको धारण कर
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