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अष्टमं पर्व
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श्रुत्वा भूपो वचः प्राह युक्तं कोऽत्र न वाञ्छति । मुद्रिका मणिना योगं यान्ती केन निवार्यते।। तत्रासक्तं सुतं जानन्पुनः प्रोवाच भूपतिः । यत्र सूरीपुरेशस्य मनस्तत्रोद्यता वयम् ||३२|| इति सर्वसमक्षं हि सत्यंकारं व्यधान्नृपः । तयोर्विवाहसिद्धयर्थं क्षणेन क्षणसंगतः ||३३|| ततो दूतं स संमान्य वस्त्रैराभरणैस्तथा । निर्णय्य लग्नदिवसं प्राहिणोत्प्राभृतैः समम् ॥३४ अथ पाण्डुकुमारोऽसौ विवाहाय विनिर्ययौ । नानालङ्करणोपेतो नानाभूपालवेष्टितः ||३५|| पाण्डुः पाण्डुरछत्रेणाखण्डाखण्डलसत्प्रभः । वदद्वाद्यसुनादाढ्यो वीजितस्तु प्रकीर्णकैः ||३६|| धरामुपरि कुर्वाणस्तुरंगमखुरोत्थितैः । रजोभी रञ्जयञ्लोकान् रेजे राजा सुराजवत् ॥३७॥ पप्रथे प्रथिमानं स रथैः सारथिसंयुतैः । सार्थैः समर्थतां नीतैमन्दिरैरिव जङ्गमैः ॥ ३८ दन्तिनो दन्तघातेन घातयन्तो धराधरान् । सार्धं नेतुं तदा नेदुर्नादयन्तो हि दिग्गजान् ॥ मित्राणि छत्रछन्नानि मित्रमण्डलभानि च । मोदान्मुमुदिरे तेन सार्धगामित्वसद्धिया ||४० आनकाः कामुका नेदुरिवाच्छादनछादिताः । कराङ्गुलिप्रिया बाढं गाढालिङ्गनतत्पराः ॥४१
अंगुठीका रत्नके साथ संबंध होनेवाला होगा तो उसे कौन दूर करेगा। कुन्तीके ऊपर अपने पुत्रका मन आसक्त हुआ है, यह बात व्यास राजा जानते थे । वे पुनः कहने लगे, कि जिसमें सूरीपुरेश अन्धकवृष्टि महाराजका मन संलग्न है उस कार्यमें हम भी उत्सुक हैं अर्थात् वे जो चाहते हैं हम भी वही चाहते हैं । ऐसा बोलकर सर्व भूपोंके प्रत्यक्ष राजाने आनंदके साथ तत्काल विवाहकी सिद्धि के लिये प्रतिज्ञा की ।। ३०-३३ ॥ तदनंतर वस्त्रोंसे और आभरणोंसे राजाने दूतका सन्मान किया । तथा लग्नके दिनका निर्णय करके प्राभृतके साथ उसे भेज दिया ॥ ३४ ॥
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[ विवाहार्थ पाण्डुराजाका प्रयाण ] तदनंतर अनेक अलंकारोंसे सजा हुआ, अनेक भूपालोंको साथ लेकर राजा पाण्डु विवाहके लिये प्रयाण करने लगा। उसके मस्तकपर शुभ्र छत्र था । उसकी कान्ति इन्द्रके समान अखंड दीखती थी । उसके आगे नानावाद्योंका ध्वनि हो रहा था । किंकर उसके ऊपर चामर ढोर रहे थे । घोडों के पादाघात से धूलि आकाश में सर्वत्र फैल गई उससे मानो पाण्डुराजाने पृथ्वीको आकाशमें कर दिया है ऐसा भ्रम होता था । राजा पाण्डु लोगों को उत्तम राजा के समान अनुरंजित करते थे । सारथियोंसे युक्त रथोंके द्वारा पाण्डुराजाने अपना महत्त्व खूब बढ़ाया था। वे रथ शिल्पकारोंसे दृढ बनाये गये चलते हुए घरोंके समान दीखते थे। अपने दांतोंके आघातोंसे पर्वतों को तोडनेवाले हाथी अपने साथ दिग्गजोंको ले जानेके लिये गर्जना करने लगे थे । पाण्डुराजाके मित्र छत्रोंसे सहित होकर उसके साथ जा रहे थे उस समय वे सूर्यमंडलके समान शोभाको धारण कर रहे थे । पाण्डुराजाके साथ हम जा रहे हैं इस विचारसे वे अतिशय हर्षित हुए थे || ३५-४० || नगारे रूपी कामीपुरुष आच्छादनवस्त्र से आच्छादित होते हुए गाढालिंगन में उत्सुक होकर करांगुलिरूपी प्रिय स्त्रिओंको मानो बुला रहे थे। झालरोंसे सुंदर दिखनेवाले नगारे
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