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________________ अष्टम पर्व १४७ व्योमाजसौरभाख्यानसदृशः कर्णसंभवः । ततः कर्णस्य संभृतिः शुद्धा विज्ञायतां त्वया॥१० सूर्यसेवनतः कुन्त्या जातः पुत्रस्तु कर्णवाक् । तन्मपात्र नरस्त्रीणां कुतः सूर्येण संगमः ॥११ भानुना. पालितो यस्मात्तस्मात्सूर्यसुतोऽप्ययम् । नन्दगोपसुतः कृष्णो यथा गोपाल उच्यते॥ अर्थ पाण्डवभूपानां कौरवाणां विशेषतः । यथाशास्त्रं यथालोकमुत्पत्तिः कथ्यते तथा ।। १३ एकदान्धकवृष्टिश्च तनयनेयपेशलैः । साधं विचारयामास कुन्त्याः पाणिप्रपीडनम् ॥ १४ यधन्येभ्यः प्रदीयेत कुन्ती स्याद्दोषदूषिता । तादृशीं तां परिज्ञाय न अहिष्यन्ति चापरे ॥१५ पटवे पाण्डवे पुत्री प्रदेयातः शुभाप्तये । इति मन्त्रिणमाकृत्य तत्र ते निश्चयं व्यधुः ॥१६॥ धृतमत्योन्यसनाम्ने व्यासाय वरप्राभृतः । दृतं संप्रेषयामास सलेखं मुखरं क्षमम् ॥१७॥ स गत्वा क्रमतः प्राप्य सदः कौरवभूपतेः । दौवारिकेण संदिष्टो ददर्श दूरतो नृपम् ॥१८॥ मगेन्द्रासनमारूढं हसन्तमिव भूमिपान् । सोत्कर्ष भावयन्तं वा चलचामरवीजनैः ॥१९॥ है वैसी तुम समझो ।। ८-१० ॥ [ सूर्यसे कर्णोत्पत्ति मानना भी मिथ्या है ] सूर्यके सेवनसे कुन्तीको कर्ण नामका पुत्र उत्पन्न हुआ यह कथन भी मिथ्या है; क्योंकि मनुष्यस्त्रियोंका सूर्यके साथ संगम होना कैसे संभवनीय है ? भानुराजाने कर्णका पालन किया था, अतः यह कर्ण सूर्यसुत -सूर्यपुत्र नामसे प्रसिद्ध है । जैसे कृष्ण नन्दगोपने पालन किया जानेसे ' नन्दगोपसुत ' ' गोपाल ' इस नामसे कहे जाते हैं ॥ ११-१२ ॥ पाण्डव-कौरवोंकी उत्पत्ति ) पाण्डवभूपाल और कौरवोंकी विशेषतः शास्त्रानुसार और लोकानुसार जैसी उत्पत्ति मानी गई है वैसी हम कहते हैं ॥ १३ ॥ किसी समय अन्धकवृष्टिराजा नीतिचतुर पुत्रों के साथ कुन्तीके विवाहका विचार करने लगा। यदि अन्य किसीको कुन्ती दी जायगी तो वह व्यभिचारके दोषसे दूषित मानी जायगी और कुन्तीको सदोष जानकर दूसरे उसका स्वीकार भी नहीं करेंगे ॥ १४-१५ । इसलिये चतुर पाण्डुराजाको अपनी कन्या शुभ- कल्याणके लिये देना चाहिये । इस प्रकार विचार करके मन्त्रीको बुलाकर उन्होंने निश्चय किया ॥ १६ ॥ धृतमर्त्य और व्यास इन दो नामोंको धारण करनेवाले व्यासराजाके पास उत्कृष्ट भेट और लेखके साथ वक्ता और समर्थ दूतको अन्धकवृष्टिने भेज दिया । वह दूत क्रमशः प्रयाण करके कौरवराजा व्यासकी सभाको प्राप्त हुआ, और द्वारपालकी अनुमतिसे व्यासराजाको उसने दूरसे देखा ॥ १७-१८ ॥ व्यासराजा सिंहासनपर बैठे थे। दुरते हुए चामरोंसे इतर राजाओंको वह हंसते थे, या अपने उत्कर्षकी भावना करते थे। सुंदर छत्रके द्वारा आकाशके भागको भूषित करनेवाले वे सूर्यके सघनप्रकाशको तिरस्कृत कर रहे थे । दिखाये गये निधिके समान लक्षावधि नजरानोंके द्वारा शोभते हुए व्यासराजा मानो भूमिदेवीके प्रकाशमान आभूषणोंके समान सुंदर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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