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सप्तमं पर्व
१४३ अङ्गदेशाङ्गता प्राप्ता नानाङ्गिणसंगिनी । अगण्यपुण्यसंगीर्णा रम्भोरूभीरुभासुरा ।। २७५ भामिनीभासुरास्येन छिन्दन्तीव हिमांशुना । तामसं या सदा भाति सदोद्योतोन्मुखी खलु ।। दानिनो यत्र सदानं दत्त्वा दानार्थमञ्जसा । पात्रेभ्यो रत्नसद्वर्ष लभन्ते लाभभासुराः ।। २७७ तत्पतिः पालितानेकसविवेकजनोत्करः । प्रतापपातितागण्यवैगुण्यजनसंश्रयः ॥ २७८ । भानुर्नाम्ना गुणैर्भानुनभानुसमद्युतिः । शत्रुदारुक्षये चित्रभानुर्भानुः प्रतापतः ॥ २७९ भानुभानुः क्षयं याति तमिस्रायां कदाचन । नायं दीप्त्या प्रतापेन सदोद्योतितदिङ्मुखः।। यदानतो जनास्तूर्ण कल्पवृक्षं विसस्मरुः । चिन्तामणौ मतिं तेनुः कामधेनौ न नाप्यहो । वेत्ता शास्त्रविदां मान्यो योद्धा युद्धविदां मतः । योऽभूत्प्रतापपारीणः शत्रुदर्पसुशातनः ॥ तत्पत्नी प्रेमसंपूर्णा राधा याराध्य देवतां । लब्धलक्ष्मीरिवानन्ददायिनी सुखदा शुभा ॥ यस्या रूपं गुणा यस्या यस्याः सौभाग्यमुन्नतम् । यस्या दीप्तिरिदं सर्व विदुषा केन वर्ण्यते।।
देशोंके लोग निवास करते थे । यह अगणित पुण्योंकी खान थी। केलेके खंभेके समान जिनकी सुंदर जंघायें हैं ऐसी स्त्रियोंसे शोभती थी। चंद्रके समान प्रकाशवाले स्त्रियोंके तेजस्वी मुखसे अंधकारको दूर करनेवाली जो नगरी नित्य प्रकाशयुक्त रहती थी । इस नगरीके दानी जन दान देनाही अपना कर्तव्य समझकर सत्पात्रको सुदान देते थे और पुण्यलाभसे चमकते हुए वे रत्नोंकी वृष्टिको पाते थे ।। २७१-२७७ ।।
- [ भानुराजाको कर्णकी प्राप्ति ] उस नंगरीका राजा अनेक सज्जन विवेकिजनोंके समूहका रक्षण करता था और अपने प्रतापसे उसने अगणित शत्रुओंके आश्रय नष्ट किये थे । उसका नाम भानु था। वह गुणोंसे भी भानु था। उसकी देहकान्ति सूर्यके किरणोंके समान थी। शत्रुरूपी इंधन जलानेमें वह चित्रभानु था-अर्थात् अग्नि था । तथा प्रतापसे वह भानु-सूर्य था । रातमें किरणोंके साथ सूर्य नष्ट होता है परंतु यह अपनी अंगकान्ति और प्रतापसे समस्त दिशाओंके मुख उज्ज्वल करता था। इसके दानसे लोक कल्पवृक्षको शीघ्र भूल गये । अर्थात् राजासे याचकोंको इच्छित दान मिलता था, अत एव वे कल्पवृक्ष, चिन्तामणि और कामधेनुको भूल गये थे । वह विद्वान् था इसलिये उसको शास्त्रके जाननेवाले पण्डित मान देते थे । तथा युद्धकुशल होनेसे योद्धा भी मानते थे। उसने प्रतापका दूसरा किनारा प्राप्त किया था, और शत्रुपक्षको
नष्ट कर दिया था ।। २७८-२८२ ॥ उस भानुराजाकी पत्नीका नाम राधा था । वह अतिशय - स्नेह करनेवाली मानो उसकी आराध्यदेवता थी । वह प्राप्त हुई लक्ष्मकि समान आनंद देनवाली
शुभ और सुखी करनेवाली थी। जिसका रूप, जिसके गुण, जिसका उन्नत सौभाग्य तथा जिसकी देहकान्ति ये सर्व किस विद्वानसे वर्णनीय होंगे ? अर्थात् इसके रूप, गुण, सौभाग्य तथा देहकान्ति अनुपम होनेसे उनका वर्णन करनेमें कोई भी विद्वान् समर्थ नहीं था । उपमादिक
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