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________________ १४० पाण्डवपुराणम् कुलं प्रविपुलं कुल्याः कल्मषीकुर्वते ध्रुवम् । सुता वध्वश्च निःशङ्का विटसंसर्गदोषतः॥२४५ समर्पिता सदा चेयं तव रक्षणहेतवे । दक्षे रक्षा त्वयेदृक्षा समक्षं विहिता लघु ॥ २४६ ।। यद्दोषतो नरेन्द्राणां सदस्सु वयमाकुलाः । अधोमुखा भविष्यामो मषीमार्जितदेहकाः॥२४७ नदी च पातयेत्कूलं नारी पातयते कुलम् । स्त्री नदीवदिदं सत्यं रससंस्कारसंगिनी ॥२४८ नागानां च नखीनां च नारीणां दुष्टचेतसाम् । विश्वासो नैव कर्तव्यो रक्षितानां महाजनैः॥ स्त्रियः सदान विश्वास्यास्ता उन्मत्ता विशेषतः। नाग्यः खादन्ति कोपेन यद्वस्कि खेदिताः पुनः।। आत्मजा रक्षणे दत्ता त्वां त्वया चेदृशं कृतम् । दुग्धरक्षाविधौ यद्वन्मार्जारी च पिबेत्पयः ॥ इत्थमुक्ते दराक्रान्ता विक्रान्तिकृतिवर्जिता । सकम्पा खेदिला धात्री गतच्छाया जगाविति ।। अशरण्यशरण्यस्त्वं यादवान्वयपालक । कृपां कृत्वावधानेन विज्ञाप्यं श्रूयतां त्वया ।। २५३ पुत्री और पुत्रकी स्त्री यदि जारपुरुषका संयोग होगया तो वे निःशंक होकर विशाल निर्मल कुलको निश्चयसे मलिनं करती है। हे धाय, हमने रक्षणके लिये हमेशा कुन्तीको तेरे स्वाधीन किया था । परंतु हे दक्षे, तूने हम प्रत्यक्ष होते हुएभी क्या इस प्रकारकी रक्षा की ? इस दोषसे राजाओंकी सभामें हमको दुःखित होकर नीचे मुख कर बैठना पडेगा, और हमारे देहपर अकीर्तिरूपी कालिमा पोती जायगी ॥ २४५-२४७ ॥ नदी किनारेको गिराती है और नारी कुलको गिराती है-कलंकित करती है । स्त्री नदीके समान है यह सत्य है । क्योंकि दोनों ' रससंस्कारसंगिनी' होती हैं। रसके-जलके संस्कारका-स्वच्छतादिकका संग नदीमें होता है, अर्थात् नदीमें स्वच्छ जल होता है और स्त्रीमें कामरसका आधिक्य होता है ॥ २४८ ।। महापुरुषोंके द्वारा रक्षित होनेपर भी सर्पिणी, व्याघी आदि नखबाले प्राणी, और दुष्ट अन्तःकरणकी स्त्रियाँ इनका विश्वास नहीं करना चाहिये ॥ २४९ ॥ स्त्रियोंके ऊपर हमेशा विश्वास नहीं रखना चाहिये और उन्मत्त स्त्रियोंपर तो बिल्कुल विश्वास नहीं करना चाहिये । क्योंकि सर्पिणी कोपसे दंशकर प्राणहरण करती है और यदि उन्हें पीडा दी जाय तो कहनाही क्या ? हे धाय हमने हमारी पुत्री रक्षणके लिये तेरे अधीन की थी, और तूने ऐसा अकार्य किया । जिस तरह बिल्लीको दूधकी रक्षाके लिये नियुक्त करनेपर वह हमेशा दूध पिया करती है, वैसे रक्षाके लिये कन्याको स्वाधीन करनेपर तूने अनर्थ कर दिया है " । इस तरह राजाके कहने पर वह धाय धैर्यगलित हुई, वह थर थर कांपने लगी, उसका शरीर पसीनेसे व्याप्त होगया । वह कांतिहीन हो गयी, और इस प्रकार बोलने लगी ॥ २५०-२५२ ॥ [ धाय सञ्चा वृत्तान्त कहती हैं “ यादववंशके पालक राजन् , आप दीनोंके अनाथोंके रक्षक हैं । कृपा करके एकाग्रचित्तसे मेरी विज्ञप्ति आप सुनिये ॥२५३ ।। हे राजेन्द्र इसमें कुन्तीका दोष नहीं है, और न मेराही परन्तु पूर्व कर्मोहीका दोष है । वह कर्म नट है और वह सबको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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