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पाण्डवपुराणम् त्वां समुत्सृज्य राज्यश्रीनर्नु किं वृणुते परम् । हित्वा वार्द्धि महासिन्धुः प्रसरः किं प्रसर्पति ।। मातामह जगादेवं गाङ्गेयस्ते महान्भ्रमः। मिदेलिमा हि प्रकृतिः कुरुवंशान्यवंशयोः ॥९९ भवेत्स्वभावो न ह्येक कलहंसबकोटयोः । गङ्गातो मे महामाता नाम्ना गुणवती सती ॥१०० एकां शृणु प्रतिज्ञा मे बाहुमुत्क्षिप्य जल्पतः । गुणवत्यास्तनूजस्य राज्यं नान्यस्य कस्यचित् ।। आह वै धीवरः खामिन् भवितारस्तवात्मजाः। न तेऽन्यस्य सहिष्यन्तें राज्यमूर्जिततेजसः॥ गाङ्गेयस्तद्वचः श्रुत्वा जगाद विशदाशयः । एतामपि तवेदानी चिन्तां व्यपनयाम्यहम् ।।१०३ शृणु त्वं व्योनि भृण्वन्तु सिद्धगन्धर्वखेचराः । आजन्मतो मयोपात्तं ब्रह्मचर्यमतः परम् ॥१०४ ततो दुहितरं कुर्वनाहूयोत्संगसंगिनीम् । धीवरोधीधनो धृत्या जगाद जाहवीसुतम् ॥१०५ गुणग्रामैकवास्तव्यो नास्त्यैव त्वत्समः पुमान् । पितुरर्थे कृथाः सद्यो यहह्मव्रतधारणम् ॥१०६ वृत्तान्तमेकमाख्यामि कुमाराकणय ध्रुवम् । एकदा यमुनाकूले विश्रामाय समागमम् ॥१०७
नदी समुद्रको छोडकर क्या सरोवरके प्रति जाती है ? ' ॥ ९४--९८ ॥ इसके अनंतर गांगेयने कहा “ हे मातामह, यह आपको केवल भ्रम है । कुरुवंश और अन्यवंशमें अवश्य विशेषता है; क्योंकि कलहंस पक्षी और बगुलेका स्वभाव एक नहीं हुआ करता । मेरी माता गंगासे बढकर सती गुणवतीको मैं महामाता मानूंगा । हे मातामह, बाहु ऊपर उठाकर बोलते हुए मेरी प्रतिज्ञा आप सुनिये “ जो गुणवतीको पुत्र होगा उसेही राज्य मिलेगा दूसरे किसीको नहीं मिलेगा" ॥ ९९-१०१ ॥ इसके अनंतर धीवरने कहा; " हे स्वामिन् , आपके जो उत्कृष्ट तेजस्वी पुत्र होंगे वे अन्यकी राज्यप्राप्ति सहन न करेंगे" ? धीवरका वह भाषण सुनकर निर्मल अभिप्रायवाले गांगेयने उत्तर दिया-' हे मातामह आपकी यह चिन्ता भी मैं दूर करता हूं' ॥१०२-१०३॥ " हे मातामह आप सुनिए, तथा हे आकाशस्थ सिद्ध, गंधर्व, खेचर आपभी सुने । इतःपर मैंने आजन्म ब्रह्मचर्य स्वीकारा है"। तदनंतर धीवरने अपनी कन्याको बुलाया और उसे अपनी गोद में बिठाकर बुद्धिधन वह धीवर आनंदसे गांगेयको कहने लगा की तुम गुणसमूहका एकही निवासस्थान हो, इस दुनिया में तुह्मारे बराबरीका दूसरा पुरुष है ही नहीं। क्योंकि तुमने पिताके अर्थ -पिताके लिये तत्काल ब्रह्मत्रत धारण किया है ' ॥ १०४-१०६॥
. [गुणवतीकी जन्मकथा] हे कुमार, मैं एक वृत्तान्त कहता हूं तुम उसे चित्त लगाकर सुनो । “ मैं किसी समय विश्रामके लिये यमुनाके किनारे गया था। वहां अशोकवृक्षके तले किसी पापीकद्वारा छोडी हुई, उसही समय पैदा हुई उत्तम सुंदर बालिका देखी। मैं अपत्यहीन था । हमेशा मुझे अपत्यकी इच्छा रहती थी । इसलिये उस सुंदर कन्याको आश्चर्यचित्तसे लेनेके लिये मैं गया। उस समय शीघ्र आकाशमें इस प्रकारकी वाणी हुई - “ कल्याणमय रत्नपुर नगरमें रत्नागद नामक राजा है, उसे रत्नवतीके उदरसे यह कन्या पैदा हुई है । उसके किसी विद्याधरे
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