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सप्तमं पर्व
११५ तदर्थी तत्पितुः पार्श्वे क्षणेन क्षितिपो ययौ । स्वागतक्रिययानन्द्य धीवरेण स मानितः ।।८७ भूपोऽभाषिष्ट शिष्टं तमिष्टं मे सहचारिणी । सुता गुणवती तेऽद्य भूयाच्छ्रुत्वेति स जगौ ।।८८ परं पतिं वरामेनां न तुभ्यं दातुमुत्सहे । गाङ्गेयो नन्दनस्तेऽस्ति राज्याहः सपराक्रमः ।।८९ सतितस्मिन्सुराज्याहे मत्पुत्र्यास्तनयः कथम् । भावी राज्यधरस्तेनानयालं कथया विभो ॥९० इत्थं युक्त्या निषिद्धः स म्लानवक्त्रो गृहं ययौ । वैवर्ण्यमुखमालोक्य गाङ्गेयः पितुराकुलः ।। विनयातिक्रमः किं मे किमाज्ञालकि केनचित् । किंवा सस्मार मे मातुर्यन्मे श्याममुखः पिता ।। एवं विमृश्य पप्रच्छ सोऽमात्यं विजने जयी । ततो निःशेषमाज्ञाय सोऽगमनौपतेर्गृहम् ॥९३ जगौ गाङ्गेय इत्येतद्धीवरं धीवरो ध्रुवम् । भूपं निराकृथा यत्तत्सुष्टु नानुष्ठितं त्वया ॥९४ अभाणीनौपतिः प्रीतः कुमार शृणु कारणम् । सोन्धकूपे क्षिपेत्पुत्रीं सापत्न्येयं ददीत यः ॥९५ त्वं नृरत्न सपत्नोऽसि येषां तेषां शिवं कुतः । जाग्रत्यसहने सिंहे सुखायन्ते कियन्मृगाः॥ कुमार मम दौहित्रो यस्तु भावी कथंचन । दूरे महोदयस्तस्य समीपे विपदः पुनः ॥९७
आनंदित कर उसका समान किया ॥ ८३ -८७ ॥ राजाने उस शिष्ट-सज्जनको कहा, मेरी इच्छा है कि आपकी कन्या गुणवती आज मेरी सहचारिणी-धर्मपत्नी होवे' राजाका भाषण सुनकर धीवरने इस प्रकार वचन कहा । " राजन् मेरी वरनेके लिये योग्य कन्या आपको देनेकी मेरी इच्छा नहीं है । आपका पुत्र राज्यके रक्षणमें समर्थ और पराक्रमी है । वह राज्यक्षम पुत्र विद्यमान होनेसे मेरी पुत्रीका भावी पुत्र राज्यका अधिकारी नहीं होगा । इसलिये हे प्रभो, यह कथा अब यहांही छोड दीजिये ।" इस प्रकार युक्तिसे निषेधा गया वह पराशर राजा खिन्नमुख होकर अपने घर गया। पिताका विवर्णमुख देखकर पुत्रका मन व्याकुल हुआ॥ ८८-९१ ॥
[ गाङ्गेयकी ब्रह्मचर्यप्रतिज्ञा ) गांगेय मनमें विचार करने लगा “ क्या मैंने पिताके विनयका उल्लंघन किया ? अथवा किसीने उनकी आज्ञाकी अवहेलना की, किंवा पिताजीको मेरी माताका स्मरण हुआ ? जिससे कि उनका मुख श्याम दीख रहा है"। ऐसा विचार कर जयशाली गांगेय राजपुत्रने एकान्तमें अमात्यको पूछा, उससे संपूर्ण हाल ज्ञात होनेके अनंतर वह नाविकोंके स्वामीके घर गया ॥ ९२-९३ ॥ गांगेय धीवरको इस प्रकार बोला-- " तू तो सच्चा धीवरही है, तुमने राजाका अपमान किया है यह योग्य नहीं हुआ" । धीवर संतुष्ट होकर बोला "कुमार, आप इसका हेतु सुनो । सौत होनेपर जो अपनी कन्या देता है, उसने अपनी कन्याको अंधकूपमें ढकेल दिया, ऐसा समझना चाहिये । हे पुरुषरत्न, तुम जिसके सौतपुत्र हो उनको. सुख कहांस मिलेगा ? सहन नहीं करनेवाला सिंह जागृत होनेसे हरिण कितने सुखी होसकते हैं ? हे कुमार, किसी तरह मेरी लडकीको पुत्र हो जायगा परंतु उसको राज्यैश्चर्य प्राप्त होना दूर ही रहे, आपसियां तो उसके समीपही रहेंगी। हे कुमार, राज्यलक्ष्मी तुझे छोडकर क्या दूसरेको वरेगी ? महा
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