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पाण्डव पुराणम्
अथ रत्नपुरे जहुर्जिष्णुर्विद्याधराधिपः । तस्य पुत्री पवित्राङ्गी गङ्गाऽभूद्गुणगौरवा ॥७७ सत्यवाणिनिमित्तज्ञवचसा जह्नुना सुता । पराशराय सा प्रीत्या वितीर्णा विधिवद्ध्रुवम् ॥७८ हर्षातां स समासाद्य सुन्दरे मन्दिरे महान् । रेमे कामं सुकप्राङ्गो मनोजमहिमश्रितः ॥७९ सासुतं सुभगं लेभे गाङ्गेयं गुरुसंनिभम् । स क्रमेणाक्रमन्विद्यां ववृधे बालचन्द्रवत् ॥८० अध्यगीष्ट धनुर्वेदं शरव्यच्छेदनोद्यतः । चारणश्रमणाल्लेभे दयाधर्म स सातदम् ॥८१ नृपोऽथ सूनवे तस्मै यौवराज्यपदं ददौ । योग्यं सुतं वा शिष्यं वा नयन्ति गुरवः श्रियम् ॥ अन्यदा यमुनातीरे रममाणो मनोहराम् । ईक्षांचक्रे चकोराक्षीं कन्यां नावि निषेदुषीम् ||८३ स तद्रूपेण भूपालो हृतचेता जगाविति । कासि त्वं कस्य तनया तामेत्य मदनोत्सुकः ॥८४ सा जगाद नरेन्द्राहं यमुनातटवासिनः । नौतन्त्राधिपतेः पुत्री कन्या गुणवतीति च ॥८५ पित्राज्ञया तरी तूर्ग वाहयाम्यहमम्भसि । भवेत्कन्या कुलीनानां पित्रादेशवशंवदा ||८६
विद्याधरराजा राज्य करता था । उसकी पवित्र शरीरवाली गुणोंके गौरवको धारण करनेवाली अर्थात् अनेक गुणोंकी खान गंगा नामक कन्या थी ॥ ७७ ॥ सत्यवाणि नामक निमित्तज्ञके भाषणसे जन्दुराजाने अपनी कन्या पराशर राजाको प्रीतिसे विधिपूर्वक दी । पराक्रमी, सुंदर शरीरवाले पराशर राजाने उसका हर्षसे स्वीकार किया और वह अपने सुंदर मंदिरमें कामकी महिमाके वश होकर उसके साथ क्रीडा करने लगा ।। ७८-७९ ॥ गंगा रानीको बृहस्पतितुल्य चतुर गांगेय नामको पुत्र हुआ ( इसको भीष्माचार्य भी कहते हैं । ) क्रमसे विद्याओंको ग्रहण करता हुआ वह शुक्लपक्षके बालचंद्रके समान वृद्धिंगत हुआ ॥ ८० ॥ लक्ष्यके छेदने में उद्यत गांगेयने धनुर्विद्याके शास्त्रका अध्ययन किया । किसी समय चारणमुनिके उपदेशसे उसने उनके पास सुख देनेवाले दयाधर्मका अंगीकार किया । जब गांगेय तरुण हुआ, राजाने उसे युवराजपद दिया । योग्यही है कि, पिता अथवा गुरु अपने योग्य पुत्रको अथवा योग्य शिष्यको लक्ष्मीसंपन्न कर देते हैं ॥ ८१-८२ ॥
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[ पराशर राजाका याचनाभंग ] किसी एकसमय राजा पराशर यमुनानदी किनारेपर क्रीड़ा करनेके लिये गया था । चकोरसमान आखोंवाली एक कन्या, जो कि नावमें बैठी हुई थी, राजाने देखी । उसके रूपने राजाका मन आकर्षित किया । कामसे उत्कंठित राजा कन्या के पास जाकर इस प्रकार बोलने लगा । ' हे भद्रे तुम कौन हो, किसकी पुत्री हो ? कन्याने कहा - " हे नरेन्द्र, यमुनातटपर रहनेवाले नाविकों के स्वामीकी मैं कन्या हूं । मेरा नाम गुणवती है। पिताजीकी आज्ञासे मैं हमेशा नौकाको पानी में शीघ्र चलाती हूं। क्यों कि कुलीन कन्या पिताकी आज्ञा अनुसार चलती है । कन्याका भाषण सुनकर उसकी प्राप्तिकी इच्छा मनमें धारण कर राजा उसके पिताके पास गया । धीवरने ( कन्या के पिताने ) स्वागतक्रिया से राजाको
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