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पाण्डवपुराणम् विष्णु त्वोपसर्ग तं गत्वा पमरथं नृपम् । वीतरागासने रूढमगदीदीरणान्वितः ॥५७ राज्येऽभिवन्दिते पूज्ये त्वया स्थितेन दुर्जयः । मन्त्री नियन्त्र्यते नैव कथं कथय कोविद ।। भूपतिः प्राह सप्ताहो राज्यं दत्तं मयाधुना । न निवारयितुं शक्यो भवद्भिर्यतामिति ॥ न विदन्ति खलाः क्षिप्रमखिलं न्यायचेष्टितम् । खलत्वं त्वयि संप्राप्तं यतः पूज्येष्वनादरः॥ निषेत्स्याम्यहमेने वै पापिष्ठं पटुतातिगम् । इति वामनको भूत्वा यागभूमि स आसदत् ।। विप्राकारधरो धीरोऽभ्यधाद्वाचं बलिं प्रति । वेदार्थविद् द्विजश्वाहं त्वं दाता वाञ्छितार्थदः ॥ सोऽमाणीत्सबलो विप्रो यत्तुभ्यं रोचते लघु । याचस्व वाञ्छितं वित्तं पात्रे दत्तं सुखाय हि ॥ विष्णुर्वाचमुवाचेति देयं मे चरणैत्रिभिः । प्रमितं भूतलं मत्वा सर्वेऽवोचन्महादराः ॥६४ स्तोकं किं याचितं विप्र यतो दाता महाबलिः । बहुनालं करे वारि दीयतां विष्णुराजगौ॥६५ तथा कृते मुनिर्विष्णुर्विष्टपं वेष्टितं हृदा । विक्रियद्धिप्रभावेनाकाद्रिपं समुन्नतम् ॥६६
होता हुआ उपसर्ग जानकर पद्मरथ राजाके पास गये। और वीतरागासनपर बैठे हुए राजाको प्रेरणा करते हुए वे इसप्रकार बोलने लगे ॥ ५७ ॥ " सत्पुरुषोंद्वारा वन्दित और मान्य ऐसे राज्यपर बैठकर हे विद्वन्, इस दुर्जन मंत्रीको अन्यायसे परावृत्त क्यों नहीं करते हो ? " || ५८ ॥ राजाने कहा, “हे मुनीश्वर मैंने इससमय सात दिनतक बलिको राज्य दिया है । इसलिये मैं उसको अन्यायसे परावृत्त नहीं कर सकता हूँ। आपही उसे ऐसे अन्यायसे परावृत्त कीजिये " ॥५९॥ मुनिराज बोले, “ हे पद्मरथ, दुष्ट लोग संपूर्ण न्यायकी प्रवृत्ति जल्दी नहीं जानते हैं। वे न्यायसे चलना ठीक समझतेही नहीं हैं। परंतु तेरे ऊपर दुष्टताका आरोप आया हुआ है क्यों कि पूज्योंका अनादर प्रत्यक्ष दीख रहा है ॥६०॥ मैं चतुरतासे दूर रहनेवाले इस पापिष्ठको इस अन्यायसे रोकूँगा" ऐसा बोल कर विष्णुकुमारमुनि वामनका रूप धारण करके यज्ञभूमिको चले गये। ब्राह्मणका रूप धारण कर वे धीरविद्वान् मुनि बलिको इसप्रकार कहने लगे- "हे बले, मैं वेदार्थ जाननेवाला ब्राह्मण हूं और तू इच्छित वस्तु देनेवाला दाता है"॥६१-६२॥ सामर्थ्यवान् ब्राह्मण बलिमंत्रीने कहा, "हे विप्रवर जो आपको इष्ट है वह आप शीघ्र मांगे; क्यों कि सत्पात्रको इच्छित धन देना सुखका कारण है" ॥६३|| बलिका भाषण सुनकर विष्णुकुमारमुनि बोले कि " हे बलि मुझे तीन पैड भूमि तू दे"। वामनका वचन सुनकर सर्व ब्राह्मण आदरसे कहने लगे कि- “ हे विग्र आप इतना अल्प क्यों मांगते हैं, क्योंकि महाबलिमंत्री दाता है अतः अधिक मांगो" | परंतु वामन विप्रने कहा 'मुझे अधिककी इच्छाही नहीं है। मेरे हाथपर पानी लोडिये '। उनके कहने के अनुसार उनके हाथपर संकल्पजल छोडा गया ॥ ६४-६५ ॥ तदनंतर विष्णुकुमार मुनिने अपने हृदयसे अर्थात् शरीरके मध्यसे जगत्को व्याप्त किया। विक्रिया के प्रभावसे उन्होंने अपना रूप अतिशय बडा कर दिया। अतिशय दीर्घ शरीर बनाकर तेजस्वी तपस्वी मुनिने अपने पांव फैलाकर एक पांव मेरुपर्वतके मस्तकपर रख दिया।
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