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________________ षष्ठं पवे ११५ खपञ्चाग्निनभाषद्कभाविन्याद्यार्यिकाः शुभाालक्षद्वयं च श्राद्धानां द्विलक्षा:श्राविका मताः।।४५ असंख्या देवदेष्यस्तु तिर्यञ्चः संख्ययान्विताः । एवं संघेन देवेशो विजहाराखिला क्षितिम् ।। मासमुक्तक्रियः प्राप सम्मेदाद्रिं सहस्रकैः । मुनिभिः समगान्मुक्ति क्षीणकर्मा यतीश्वरः ।।४७ वैशाखे शुक्लपक्षस्यादिमे घस्रे जिने गते । सिद्धिं ज्ञात्वा जिनं सिद्धमापुरुत्कण्ठिताः सुराः ॥ कुर्वाणास्ते सुनिर्वाणपूजां गीर्वाणनायकाः । नामं नाममगुः स्वर्गस्तावं स्तावं गुणान्विभोः॥४९ आसीद्यः प्राग्विदेहे नृपमुकुटतटीघृष्टपादारविन्दो दक्षो वै सिंहपूर्वो रथ इति नृपतिः सिद्धसर्वार्थसिद्धिः। कुन्थुः कुन्थ्वाख्यजीवप्रमुखसुखदयादायको नायकस्तात् चक्री तीर्थकरोऽसौ वरगुणमतये कामदेवो वरो कः ॥ ५० पुष्यत्पापारिकुन्थुर्वरमथनमितो मीनकेतोः सुकेतो धर्ता धर्मे धरित्री त्रिभुवनमाहितः कुन्थुनाथः सुनाथः । कुन्थ्वादीनां दयाढ्यो वरपथपथिकस्तीर्थराट् चक्रराजः शुम्भत्सौभाग्यभर्ता भववनदहनः पातु पापात्स युष्मान् ॥ ५१ हजारको संख्या थी ॥ ४०-४४ ॥ प्रभुके समवसरणमें शुभ कार्य करनेवाली भाविनी आदिक आर्यिकायें साठ हजार तीनसौ पचास थीं। दो लाख श्रावक थे और दो लाख श्राविकायें थीं ॥४५॥ समवसरणमें असंख्यात देव और देवांगनायें थीं। तिर्यंच संख्यात थे। इस प्रकारके संघके साथ प्रभुने समस्त आर्यखण्डमें विहार किया ॥ ४६ ॥ [कुंथुप्रभुका मोक्षोत्सव ] जब प्रभुकी आयु एक मासकी अवशिष्ट रही तब वे सम्मेद-शिखरपर्वतपर आये। तब उनका विहार बंद हुआ। अधाति कर्मोंका नाश होनेपर यतियों के स्वामी कुंथुनाथ जिन हजारों मुनियोंके साथ मुक्त हुए ॥ ४७ ॥ वैशाख शुक्ल पक्षकी प्रतिपदाके दिन जिनेश्वर मुक्त हुए सो जानकर उत्कंठित हुए देव सम्मेदशिखरपर आये। देवोंके नायक इन्द्र प्रभकी निर्वाण पूजा करते हुए प्रभुको बार बार नमस्कार कर तथा प्रभुके गुणोंकी अनेकवार स्तुति कर स्वर्गको चले गये ॥ ४८-४९ ॥ जो पूर्वभवमें जंबूद्वीपके पूर्व विदेहक्षेत्रमें राजाओंके मुकुटतटोंसे घिस गये हैं चरणकमल जिसके ऐसा चतुर सिंड्ररथ नामक राजा था। अनंतर उसने तपश्चरण करके सर्वार्थसिद्धिमें अहमिन्द्र पद पा लिया। वहांसे च्युत होकर कुंथु नामक जीव जिनमें मुख्य हैं ऐसे जीवोंको सुख देनेवाले और दया करनेवाले स्वामी कुंथुनाथ जिनेश्वर हुए। ये प्रभु चक्रवर्ति, तीर्थकर और श्रेष्ठ कामदेव भी हुए। जो पापशत्रु का मर्दन करनेवाले, उत्तम ध्वज जिसके हाथमें है ऐसे मदनका नाश करनेवाले, सर्व पृथ्वीको धर्ममें स्थापन करनेवाले, त्रिलोक जिसको पूजता है, कुंथु आदिक जीवोंपर पूर्ण दयालु होनेसे जो जीवोंके रक्षक स्वामी हैं, श्रेष्ठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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