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________________ ११४ पाण्डवपुराणम् चक्रलक्ष्मी समासाद्य समभूषकलाञ्छनः । स्मृतपूर्वभवज्ञानो व्यरंसीद्भवतः स च ॥ ३३ ज्ञात्वा लौकान्तिका देवास्तादृशं तं स्तवस्तवैः । स्तुत्वा दीक्षोद्यतं नत्वा समगुः पञ्चमी दिवम्।। पुत्रे नियुक्तराज्योऽसौ विजयाशिविकां श्रितः । देवेन्द्रैः सह संप्रापत्सहेतुकवनं वरम् ।।३५ जन्मनो दिवसे पष्ठोपवासी तत्र भूमिपैः । सहसैलञ्चनोयुक्तैरयासीत्संयमं विभुः ।। ३६ तत्पुरे धर्ममित्राख्यः पारणादि ददौ मुदा । तस्मै च पायसं सोऽतः प्रापदाश्चर्यपञ्चकम्।।३७ नीत्वा षोडश वर्षाणि छाबस्थ्येन सहेतुके । वने षष्ठोपवासी स तिलकद्रुममूलगः ॥ ३८ चैत्रज्योत्स्नापराह्ने च तृतीयायां समुद्यमी । घातिकर्मक्षयं कृत्वा कैवल्यमुदपादयत् ॥ ३९ सुरासुरनरैः पूज्यः समवसृतिसंस्थितः । स्वयंम्वाधैर्गणेशैश्च पञ्चविंशगिरीडितः ।। ४० सुपूर्वसंविदः सप्तशतान्यस्य यतीश्वराः । शिष्याः शतैकपश्चाशत्रिपश्चाशत्सहस्रकाः ॥ ४१ तृतीयावगमास्तस्य पञ्चवर्गशतानि वै । त्रयस्त्रिंशच्छतं तस्य केवलाः केवलेक्षणाः ।। ४२ विक्रियर्द्धिसमृध्याढ्याः खद्वयैकेन्द्रियोक्तयः । चतुर्थज्ञानिनोऽभूवन्खनभस्त्रित्रिसंख्यकाः ॥४३ वादिनो वादजेतारः पञ्चाशन्दिसहस्रकाः । सर्वे षष्टिसहस्राणि तस्याभूवन्यतीश्वराः ॥ ४४ को धारण करनेवाले प्रभु भोग भोगने लगे। कुछ काल बीतनेपर वे चकलक्ष्मी की प्राप्तिसे चक्रवर्ती हो गये। किसी समय कुंथुजिनेश्वर पूर्वभवके ज्ञान का स्मरण होनेसे संसारसे विरक्त हुए। लौकान्तिकदेवोंने प्रभुके वैराग्यभावोंको जाना। दीक्षाके लिये उद्युक्त हुए प्रभु की स्तुति और वन्दना करके लौकान्तिक देव पांचवे स्वर्गको गये ॥३१-३४॥ प्रभुने पुत्रको राज्य दिया। विजया नामक शिबिकामें वे बैठे और देवेन्द्रोंके साथ वे उत्तम-सुंदर सहेतुक वनमें आये। वहां वैशाख शुक्ल प्रतिपदाके दिन दो उपवासोंकी प्रतिज्ञा कर लोंच करनेमें उद्युक्त हुए । हजारों राजाओंके साथ प्रभुने संयम धारण किया। हस्तिनापुरमें पारणाके दिन धर्ममित्र नामक राजाने प्रभुको आनंदसे पायसका आहार दिया, जिससे पंचाश्चर्यवृष्टि हुई । सहेतुक वनमें प्रभुने छद्मस्थावस्थामें सोलह वर्ष व्यतीत किये। तत्पश्चात् दो उपवासोंकी प्रतिज्ञा कर प्रभु तिलकवृक्षके मूल में बैठ गये। कर्मक्षयका उद्यम करनेवाले प्रभु चैत्र शुक्ल तृतीयाके दिन दो पहरको घातिकर्मीका क्षय करके केवलज्ञानी हुए ॥ ३५-३९ ॥ [ प्रभुके द्वादशगण ] समवसरणमें विराजमान प्रभु, देव दानव और मनुष्योंसे पूज्य हुए। स्वयंभू आदिक पैंतीस गणधरोंसे वे स्तुति किये गये। प्रभुके समवसरणमें चौदह पूर्वोके ज्ञाता मुनि सातसौ थे । तिरेपन हजार एकसौ इक्यावन शिष्य मुनि थे। अवधिज्ञानी मुनि पच्चीससौ थे। केवलज्ञानी मुनि सिर्फ तेहतीससौ थे। विक्रियाऋद्धिसे संपन्न मुनि पांच हजार एकसौ थे । चौथे ज्ञानके धारक-मनःपर्ययज्ञान वाले मुनि तेहसिसौ थे। वादमें अन्य मिथ्यादृष्टि विद्वानोंको जीतनेवाले यति दो हजार पचास थे। संपूर्ण मुनियोंकी उनके समवसरणमें साठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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