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यतो जना घना नित्यं जजन्यन्ते भवावनौ । ततोऽद्य गर्भभावेन तद्धि दुःखकरं नृणाम् ||२५ सूर्याका जायते लोके का स्थिता विदुषां मुखे । अर्जुनः कीदृशः का स्याद्गङ्गा भागीरथीति च ॥ एवं प्रश्नोत्तरेऽस्त सा सुतं प्राग्यथा रविम् । नवमे मासि वैशाखे शुक्लपक्षादिमे दिने ।। २७ मेघवाहनमुख्यास्ते समागत्य सुरासुराः । नयन्ति स्म जिनं मेरुमूर्धानं चोर्ध्वगामिनः ।। २८ पीठे संस्थाप्य संपव्य सत्पाठं पठनोद्यताः । क्षीराब्धिवारिभिर्देवा अभ्यषिञ्चखिनो त्तमम् ॥ २९ संज्ञया कुंन्धुमाज्ञाय समानीय पुरे सुराः । पित्रोः समर्पयामासुर्मघवप्रमुखाः सुराः ॥ ३० यौवने वर्धमानः स वर्धमानगुणोदयः । पञ्चत्रिंशद्धनुःकायो निष्टप्ताष्टापदद्युतिः || ३१ स्फुरत्पश्चसहस्त्रोनलक्षसंवत्सरस्थितिः । प्राप्तराज्यपदो भोगान्भुञ्जन् भद्रभरावहः || ३२
" ऐसा
मनुष्यों को आज दुःख देनेवाला कर्म हे रानी तूं गर्भके प्रभाव से तोड दे । ' ततः अद्य पदच्छेद है । ' ततोऽद्य गर्भभावेन तद्धि दुःखकरं नृणां ' इस लोकार्धके आदिके दो शब्दोंका ततः अद्य ऐसा विग्रह जब करते हैं तब इसमें क्रियापद नहीं है ऐसा भास होता है इसलिये इसे क्रियागुप्त कहते हैं । परंतु ' ततः द्य ' ऐसा पदच्छेद करनेपर ' दो छेदने ' इस धातुका लोट् लकारका मध्यमपुरुष एकवचन ' द्य' ऐसा होता है और श्लोकार्थ बराबर जम जाता है ॥ २५ ॥ इस जगतमें सूर्यसे कौन उत्पन्न होती है ? पंडितोंके मुखमें कौन रहती है ? अर्जुन कैसा होता ! और गंगा कौन है ? ऐसे चार प्रश्न देवीने किये और रानीने ' भागीरथी ' इस एकही शब्द में सब प्रश्नोंका उत्तर दिया । वह इस प्रकार है -सूर्यसे भा' कान्ति उत्पन्न होती है । पंडितों के मुखमें 'गी' सरस्वती रहती है । अर्जुन ' रथी' नामको धारण करता है और गंगाको ' भागीरथी' कहते हैं । सब अक्षर मिलकर ' भागीरथी' यह नाम गंगानदीका हो जाता है ॥ २६ ॥
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[ कुंथुजिनका जन्मकल्याणक ] इस प्रकार देवियोंने प्रश्न किये और माताने उनके उत्तर दिये । इसके अनंतर पूर्वदिशा जैसे सूर्यको जन्म देती है वैसे श्रीकान्तादेवीने वैशाख शुक्लप्रतिपदाके दिन जिनबालकको जन्म दिया ॥ २७ ॥ इन्द्र जिनमें मुख्य हैं ऐसे देव और दानव जन्मनगरीमें आये और प्रभुको ऊपर जानेवाले वे मेरूपर्वतके मस्तकपर ले गये । पाण्डुकशिला के मध्य सिंहासन पर उन्होंने प्रभुको स्थापन किया । स्तोत्र पढने में उक्त देव जिनेश्वरके गुणोंको गाकर क्षीरसमुद्रके जलसे उनको स्नान कराने लगे । अभिषेकविधिके अनंतर प्रभुका 'कुथु ' ऐसा नाम रखकर इंद्रादिक देवोंने उनको नगरमें ले जाकर मातापिता के पास दिया ॥ २८-३० ॥ तारुण्यावस्था में बढ़ते जानेवाले प्रभु गुण और ऐश्वर्य के साथ वृद्धिंगत हुए । उनका शरीर पच्चीस धनुष्यका था । उनके शरीरकी कान्ति तपाये हुए सोनेके समान थी । उनकी आयु पांच हजार वर्ष कम एक लाख वर्षोंकी थी । प्रभुको उनके पितासे राज्यपद प्राप्त हो गया । कल्याण के समूहों
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