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पाण्डवपुराणम् विदित्वा वाद्यनादेन प्रातः सातासुखावहा । कृतनित्यक्रिया स्नात्वा मिलन्मङ्गलमण्डना ।। स्वसेवापरसंसक्ता द्योतयन्ती सदोनमः । विद्युल्लतेव चाद्राक्षीद्भपं जीमूतवस्थितम् ॥१६ नृपासनार्धमासीना नत्वा तत्पादपङ्कजम् । व्यज्ञासीत्स्वमसंघातमधविनौषघातकम् ।। १७ विदित्वा तत्फलं भूपोऽवधिवीक्षणतः क्षणात् । क्रमतः क्रमसंभावि फलं तेषामवर्णयत् ॥१८ श्रुत्वा वचोंऽशुना स्पृष्टा तत्स्फुरद्वदनाम्बुजा । अब्जिनीवास्रसंस्पर्शादतुषञ्चोष्णदीधितेः ॥१९ श्रावणे बहुले पक्षे दशम्यां संदधे च्युतम् । सर्वार्थसिद्धितो देवं देवीगर्भे सुशोधिते । २० बिडोजा जडतामुक्तो ज्ञात्वा तद्गर्भसंभवम् । समाट्य घटनानिष्ठस्तत्कल्याणं तदाकरोत् ।। २१ सा मुक्ताफलवद्गर्भ शुक्तिकेव समुज्ज्वला । दधती धाम संदीप्ता द्योतते स्म स्मयावहा ।।२२ दीप्तदेवीगणैः सेव्या सेव्यार्थफलदायिनी । प्रनिता गूढकाव्याचे रेजे सा रत्नखानिवत्।। २३ सारः कः संसृतौ देवि सुखं किं चाभिधीयते । शर्माशर्मकरं किं हि वदाद्याक्षरतः पृथक्।।२४
गमन करनेवाली वह रानी विद्युल्लताके समान सभारूपी आकाशको प्रकाशित करती हुई, मेधके समान बैठे हुए राजाको देखने के लिये आई ॥ १४--१६ ॥ राजाके चरण कमलोंको वन्दनकर उसके आधेआसनपर बैठकर पाप और विघ्नोंका समूह नष्ट करनेवाला स्वप्नका समूह रानीने राजाको कहा ॥ १७ ॥ तत्काल अवधिज्ञानके द्वारा स्वप्नोंका फल जानकर क्रमसे होनेवाले उनके फल राजाने क्रमसे वर्णन किये ॥ १८ ॥ रानीने फलपरंपरा सुनी। सूर्यके किरणोंके स्पर्शसे कमलिनी जैसी प्रफुल्ल होती है वैसी राजाके वचनरूपी किरणोंका स्पर्श होनेसे जिसका मुखकमल प्रफुल्ल हुआ है ऐसी वह रानी श्रीकान्ता आनंदित हुई ॥ १९॥ श्रावणकृष्ण दशमीके दिन रानीने सर्वार्थसिद्धिसे च्युत हुए अहमिन्द्र देवको श्रीआदिक देवियोंसे सुशोधित गर्भमें धारण किया ॥ २० ॥ प्रभु गर्भमें आये हुए है यह समझकर अज्ञानतासे रहित इन्द्र हस्तिनापुरमे आया और सर्व कार्योंकी व्यवस्थित रचना करनेवाले उसने श्रीकुंथुनाथका गर्भकल्याणविधि किया ॥ २१ ॥ उज्ज्वल शुक्तिका-सीप जैसे मोतीको धारण करती है वैसे तेजसे प्रदीप्त अभिमानयुक्त वह रानी गर्भको धारण करते हुए चमकने लगी ॥ २२ ॥ उज्ज्वलकान्तिको धारण करनेवाली देवियां जिसकी सेवा करती हैं, जो सेव्यार्थ-उपभोग योग्य पदार्थरूपी फलोंको देनेवाली है, ऐसी श्रीकान्तारानी रत्नकी खानके समान शोभती थी. । देवियोंने रानीसे प्रश्न पूछे। और उनके उत्तर रानीने क्रमसे दिये ॥ २३ ॥ हे देवि, इस संसारमें सार क्या है ? और सुख किसको कहते है ? सुख और दुःख देनेवाला क्या है ? आद्य अक्षरको बदलकर आप उत्तर दें । उत्तर- इस संसारमें हे देवियों ! धर्मही सार है। 'शर्म'को सुख कहते है और जीवोंको सुखदुःख देनेवाला 'कर्म' है । इन तीन उत्तरमें आद्य अक्षर बदल गया है । धर्म, शर्म और कर्म ॥२४॥
- [क्रियागुप्त ] जिससे बहुत लोक वारंवार संसाररूपी पृथ्वीपर जन्म लेते हैं वह
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