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षष्ठं पर्व
१११ तारागणो गुणाकृष्टश्चक्षुस्तारापराजितः । यस्या नखमिषान्नूनं सेवते शिवसिद्धये ॥ ८ यद्वक्त्रचन्द्रमावीक्ष्य पमा समातिगा सदा । जलेषु शेरते यस्माद्विरोधश्चन्द्रपअयोः ॥९ यद्वक्षोजमहाकुम्भौ सेवते हि निधीच्छया । स्फुरन्मनोहरो हारो नागवन्नागमार्थिनी ॥१० यत्सेवावधिसंबद्धाः श्यादयोऽमरयोषितः । कुर्वन्ति सर्वकार्याणि पुण्याकि हि दुरासदम् ॥ धनधाराधरो धीरो धनदो हि यदङ्गणे । जलवद्रत्नधारां च वर्षतीति महाद्भुतम् ॥१२ रत्नधाराधरत्वेन वसुधाख्यां गता धरा । यत्र गीत्सवे तत्कि यन्नाभूत्प्रमदावहम् ॥ १३ सैकदा षोडशस्वमान्निशापश्चिमयामके । सुप्ताथ शयनेऽद्राक्षीनृपपत्नी नृपालिका ॥ १४
गुणोंसे खींचा गया था । अतएव वह उसके नखोंके मिषसे सुखकी प्राप्ति के लिये उसकी सेवा करने लगा ॥ ८ ॥ जिसका मुखचन्द्र देखकर लक्ष्मी अपना निवासस्थान अर्थात् कमल छोडकर अन्यत्र चली गई, और वे कमल जलमें रहने लगे । क्योंकि चन्द्र और पद्ममें आपसमें विरोध होताही है । चन्द्रके उदयसे दिन-विकासी कमल जिनको पद्म कहते हैं वे संकुचित होते हैं। तात्पर्य यह है कि रानीका मुख कमलोंसे भी अधिक सुन्दर था इसलिये वे लक्ष्मीहीन-शोभाहीन होगये ॥९॥ चमकनेवाला मनोहर हार नागके समान श्रीकान्तारानीके स्तनरूपी महाकुम्भोंका निधिकी इच्छासे-निधि समझकर आश्रय करता है । जो निधिके कुम्भ-कलश होते हैं वे सर्पकी इच्छा करते हैं अर्थात् निधि - कलशके पास सर्पोका निवास रहता है । वैसे श्रीकान्ता रानीके स्तनकलश भी नाग-पुरुषश्रेष्ट जो सूरसेन महाराज उनकी और मा लक्ष्मीकी इच्छा करते हैं। अर्थात् श्रीकान्ताके स्तनकलश सुन्दर थे और सूरसेन महाराजको अतिशय प्रिय थे ॥१०॥ श्रीकान्ता रानीकी सेवामर्यादाओंसे बांधी गई श्री ही आदिक देवस्त्रियाँ उसके सर्व कार्य करती थीं। क्योंकि पुण्योदयसे कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं होती है। अर्थात् रानीका विशाल पुण्योदय होनेसे देवतायें उसकी गृहदासियोंके समान कार्य करती थीं ॥ ११ ॥ धनरूपी धारा धारण करनेवाला धीर कुबेररूपी मेघ उस श्रीकान्तारानीके गृहाङ्गणमें जलके समान रत्नवृष्टि करता था; यह बडी अचम्भेकी बात है ॥ १२ ॥ श्रीकुन्थुनाथजिनके गर्भोत्सवमें पृथ्वीने रत्नवृष्टिको धारण किया अतः वह 'वसुधा' नामको धारण करने लगी । प्रभुके गर्भोत्सवके समय ऐसी कौनसी वस्तु थी जो कि आनंदका हेतु नहीं हुई अर्थात् तीर्थकरके गर्भोत्सवके समय सभी लोगोंके भी पुण्योंका उदय होता है जिससे सब लोगोंको सुख देनेवाली बातेंही हमेशा होती हैं ॥ १३॥
[ कुन्थुप्रभुका गर्भमहोत्सव ] जनताका रक्षण करनेवाली वह सूरसेन महाराजकी पत्नी श्रीकान्तादेवी किसी समय शय्यापर आनंदसे निद्रा ले रही थी। उसने रात्रीके पश्चिम प्रहरमें सोलह स्वप्न देखे । प्रातःकालकी वाद्यध्वनीसे वह जागृत हुई । तदनंतर प्रसन्न मनसे नित्य क्रिया कर उसने स्नान किया । मङ्गल अलंकार धारण किये। अपनी सेवा करनेवाली दासियोंके साथ
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