________________
११०
पाण्डवपुराणम् । षष्ठं पर्व ।
कुन्थुं कुन्ध्वादिजीवानां कुन्थनान्मुक्तमानसम् । सुपथ्यं भव्यजीवानां वन्दे सत्पथपातिनाम्।। अथ शान्तिसुतः श्रीमान्नारायणसमाह्वयः । शान्तिवर्धनसंज्ञस्तु शान्तिचन्द्रस्ततोऽभवत् ॥ २ चन्द्रचिह्नः कुरुश्चेति कुरुवंशसमुद्भवाः । एवं बहुष्वतीतेषु शूरसेनो नृपोऽभवत् ॥ ३ यस्मिन्राज्यं प्रकुर्वाणेऽभूवन्नानासुनीतयः । इतयः क्वापि संनष्टा घस्त्रे तारागणा इव ॥ ४ स शूरः शूरताधीशः शूरसहस्रसंयुतः । सूराभः केवलो यस्य रसोऽभूच्छ्ररसंश्रितः ॥ ५ यत्प्रतापात्परे भूपा हित्वा पत्तनसजनान् । दरीषु दरसंदीप्ताः शेरते शयनातिगाः || ६ श्रीकान्ता कामिनी तस्य श्रीवत्कान्ता गुणांब्धितः । जाता भ्रात्रिन्दुसद्वक्त्रा जगदानन्ददायिनी ।।
[ट्टा पर्व ]
रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गका आश्रय करनेवाले भव्यजीवोंको जो हितकर हैं, कुंथु आदिक समस्त जीवोंको पीडा देनेसे रहित जिनका चित्त है अर्थात् कुंथुआदिक समस्त जीवोंपर करुणा करनेवाले, श्रीकुथु जिनेश्वरको मैं वन्दन करता हूं ॥ १ ॥
1
[ कुन्थु - जिनेश्वरका चरित ] श्रीशान्ति - जिनेश्वरका नारायण नामक राजलक्ष्मीसे शोभनेवाला पुत्र था । उसके अनंतर शान्तिवर्धन नामक नारायणका पुत्र राज्य करने लगा । तदनंतर शान्तिचन्द्र नामक राजा हुआ। इसके अनंतर चंद्रचिह्न और कुरु ये राजा होगये । ये सब कुरुवंशमें उत्पन्न हुए थे । इस प्रकार अनेक राजगण इस वंश में उत्पन्न हुए । तदनंतर सूरसेन नामक प्रसिद्ध राजा इस वंश में उत्पन्न हुआ || २ - ३ ॥ सूरसेन राजाका जब शासन चल रहा था तब लोगों में अनेक सुनीतियोंका प्रसार हुआ । और अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि सात प्रकारकी पीडायें दिन में तारागण के समान कहीं भी नहीं दीखती थीं ॥ ४ ॥ वह शूरसेन राजा शूर था, शूरत्वगुणका प्रभु था। हजारों शूरवीर उसके आश्रय में थे । सूरसेन राजा सूर्यकेसमान तेजस्वी था । इस राजाके शौर्यरसका आश्रय शूरोंने लिया था । राजाके प्रतापसे शत्रु राजाओंने अपने नगरोंका त्याग किया था और भयसे जलते हुए अपने बिछानोंको छोड़कर पर्वतों की गुहाओंमें सोते थे ।५-६ ॥ राजा सूरसेनकी श्रीकान्ता नामक रानी श्रीके समान सुन्दर थी । लक्ष्मीकी उत्पत्ति समुद्र से हुई थी, और श्रीकान्ताकी उत्पत्ति गुणसमुद्रसे हुई थी । लक्ष्मीका मुख उसका भाई जो चंद्र उसके समान था, और श्रीकान्तारानीका मुख चन्द्रके समान था । रानी लक्ष्मीके समान जगतको आल्हाद देनेवाली थी ||७|| रानीके आखोंकी कनीनिकाके द्वारा पराजित हुआ ताराओंका समूह, रानीके कांति आदिक
१ प गुणा यतः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org