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पंचमं पर्व
इति जिनवरवंशे कौरवेsभाजिनेश सुरपतिशत सेव्यश्वक्रिचक्रार्च्यपादः । गुणगणसगुणाय ध्वस्तकामादिशत्रुः वरविजयसमाटच्चक्ररत्नः सुतीर्थेद् ।। १३१ यद्रषेण मनोहरेण जगतां नाथाः सुमोहं गताः कीर्तिस्फूर्तिसुमूर्तितूर्तिसदनं यो नीतिविद्यालयः । शान्तीशो वरनाथचक्रपदवीं प्राप्तो मनोभूपदस्तीर्थेशो वरसार्थतीर्थकरणे दक्षः सुपक्षोऽवतात् ।। १३२ शान्तिः शान्तिकरः सुदृष्टिसदनं शान्तिं श्रिताः शान्तिना सन्तः सारशिवं शिवार्थजनकं तस्मै नमः शान्तये । शान्तेः सातशतं सुसुप्तिहरणं शान्तेः शुभाः सद्गुणाः शान्तौ स्वान्तमिदं सृजामि सततं शान्ते सुखं मे सृज ।। १३३ इति भट्टारक श्रीशुभचन्द्रप्रणीते ब्रह्मश्रीपालसाहाय्यसापेक्षे श्रीपाण्डवपुराणे महाभारतनाम्नि श्रीशान्तिपुराणव्यावर्णनं नाम पञ्चमं पर्व ॥ ५ ॥
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समूहोंसे तथा गुणिजनोंसे पूजायोग्य, कामादि शत्रु जिन्होंने नष्ट किये हैं, उत्कृष्ट विजयके साथ जिनका चक्ररत्न पखंडमें घूमता है, ऐसे श्रीशान्तिजिनेश्वर वृषभजिनेश्वरके स्थापन किये गये कुरुवंश में शोभते थे || १३१ ॥ मनोहर ऐसे जिनके सौंदर्य से तीन लोकोंके नाथ-धरणेन्द्र, चक्रवर्ती और देवेन्द्र मोहित हुए, जो कीर्ति, स्फूर्ति - उत्साह, सुंदर शरीर और स्तुति के निवास थे, जो नय और प्रमाण ज्ञानके घर थे, जिनको उत्कृष्ट चक्रवर्तिपद, कामदेवका पद और तीर्थकर पद प्राप्त हुए थे, जो उत्कृष्ट अन्वर्थ तीर्थोत्पत्ति करनेमें चतुर थे और जो उत्तमपक्ष के स्याद्वादपक्ष के पोषक थे, वे श्रीशान्तीश्वर हमारा रक्षण करें ॥ १३२ ॥ श्रीशान्तिप्रभु शांतिको करनेवाले हैं । सम्यग्दर्शनके अथवा सुशासनके स्थान हैं, ऐसे शान्तिप्रभुका भव्यगण आश्रय लेते हैं । शान्तिप्रभुके द्वारा सज्जन मोक्षपुरुषार्थजनक ऐसे उत्कृष्ट शिवको मुक्तिसुखको प्राप्त होते हैं । ऐसे श्री शान्ति - जिनको हम नमस्कार करते हैं । श्रीशान्तिप्रभुसे त्रिकालनिद्राको नष्ट करनेवाले सैकडो सुख मिलते हैं । श्रीशान्तिके सद्गुण शुभकार्य करनेवाले होते हैं । मैं श्री शान्ति जिनेश्वर में मनको अर्पण करता हूँ । हे प्रभो शान्तिजिनेश, आप मुझे हमेशा शान्तिसुख दे ||१३३ ॥
श्रीब्रह्मचारी श्रीपालने जिसमें साहाय्यदान किया है ऐसे
भट्टारक शुभचन्द्रप्रणीत पाण्डवपुराण में अर्थात् महाभारत में श्रीशान्तिनाथपुराणका वर्णन करनेवाला पांचवा पर्व समाप्त हुआ ॥ ५ ॥
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