________________
पाण्डवपुराणम् . पुरोधोगृहसेनास्थपतयो हास्तिने पुरे । विजया कनकन्यागजाश्वा बोभुवत्यपि ॥ ११९ एवं राज्यं प्रकुर्वाणो दर्पणे दर्पदर्पितः । छायाद्वयं विलोक्यागाद्विरक्तिं रतिमुक्तधीः ॥१२० प्राप्तलोकान्तिकस्तोत्रः कृतदेवाभिषेचनः । नानालङ्कारसंभासी शिबिकासमवस्थितः ॥ १२१ सहस्राम्रवनावासी शोभनीयशिलास्थितः । पञ्चमुष्टिभिरुल्लुञ्ज्य कचाज्येष्ठस्य तामसे।।१२२ चतुर्थ्यामपराहेऽभून्मुनिः षष्ठोपवासभृत् । चक्रायुधादिसद्राजसहस्रः सह संयमी ॥ १२३ मनःपर्ययबोधेन पारणे मन्दिरं परम् । प्रविष्टाय सुमित्रेण तस्मै ददेऽनमुत्तमम् ॥ १२४ कदाचित्पूर्वसंमोक्तवनमासाद्य भ्रातृभिः । षष्ठोपवासभृत्तस्थौ प्राङ्मुखो ध्यानसन्मुखः।।१२५ षोडशाब्दसुछाद्मस्थ्यमुक्तः केवलमाप सः। पौषेऽथ धवले पक्षे दशम्यां च दिनात्यये ॥ चक्रायुधादयस्तस्य पत्रिंशद्गणपा बभुः । द्विषभिश्च सभासभ्यैः समवसृतिसंस्थितैः॥१२७ विजहार महीं रम्यां स सुरासुरसंस्तुतः । मासमात्रावशेषायुः सम्मेदादि समाश्रितः।। १२८ ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां सिद्धिस्थानमगाजिनः। चक्रायुधादयो धीरा हत्वा कर्मकदम्बकम्।।१२९ ध्यायन्तस्तद्गुणांस्तूणे जग्मुः स्वं स्थानमुत्तमाः । नराश्च तद्गुणासक्ता आसेदुः स्वस्वपत्तनम्।।
अनंतरही लौकान्तिक देवोंने आकर प्रभुकी स्तुति की और वे अपने स्थानको चले गये । तदनंतर सर्व देव आगये । उन्होंने प्रभुको क्षीरसागरके जलसे अभिषिक्त किया। अनेक अलंकारोंसे प्रभु भूषित होकर शिबिकापर आरूढ हुए । सहस्राम्रवनमें जाकर वहाँ सुंदर शिलापर वे बैठ गये । ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्थीके दिन दोपहरमें पंचमुष्टियोंसे प्रभुने केशलोंच किया। दो उपवासकी प्रतिज्ञा धारण की, चक्रायुधादि हजार राजाओं के साथ वे संयमी हुए। परिणामविशुद्धिसे उनको मनःपर्यय ज्ञान हुआ । पारणाके दिन सुमित्रराजाके मंदिरमें प्रभु आहारके लिये आये तब उसने उनको उत्तम अन्नदान दिया ॥ १२०-१२४ ॥ किसी समय उसी सहस्राम्रबनमें जाकर अपने भाईयोंके साथ दो उपवास धारण कर तथा पूर्वदिशाको मुंहकर प्रभु आत्मध्यानमें तत्पर होगये ॥ १२५॥
शान्तिप्रभुको केवलज्ञान और मुक्तिलाभ ] सोलह वर्षोंका छद्मस्थपना समाप्त होनेपर पौषशुक्ल दशमीके दिन सूर्यास्तके अनंतर अर्थात् रात्रीके प्रारंभमें प्रभु केवलज्ञानी हुए ॥ १२६ ॥ प्रभुके चक्रायुधादिक छत्तीस गणधर थे । समवसरणमें रहे हुए बारह गणोंके साथ सुर और असुरोंके द्वारा स्तुति किये गये प्रभु रमणीय पृथ्वीतलमें विहार करने लगे। प्रभुकी आयु जब मासमात्रकी रही तब वे सम्मदपर्वतपर आये । और ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशीके दिन वे सिद्धिस्थानमें विराजमान हुए अर्थात् सर्व कर्मरहित अनंत सुखादिगुणपूर्ण हुए। चक्रायुधादिक धीर मुनि कर्मोका समूह नष्ट कर प्रभुके साथ कर्ममुक्त होकर सिद्ध होगये ॥ १२७-१२९ ॥ प्रभुके सद्गुणोंका ध्यान करनेवाले उत्तम इंद्रादिक देव स्वर्गको शीघ्र गये तथा उनके गुणोंमें आसक्त मनुष्य भी अपने अपने नगरको गये ॥ १३० ॥ इस प्रकार सौ इन्द्रोंसे सेवनीय, चक्रवर्तियोंके समूहसे पूज्य चरणबाले, गुणोंके
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org