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पंचम पर्व
१०७ मासान्पञ्चदशायातमणिवृष्ट्याप्तपूजना । ज्येष्ठे कृष्णचतुर्दश्यां सासूत सुतमुत्तमम् ॥११० तजन्मतो महाशंखभेरीभारातिघण्टिकाः । स्वरा जजृम्भिरे देवसमसु जन्मसूचकाः ॥१११ प्रीत्या प्रेत्याप्रमाणास्ते सुपर्वाणाः सजिष्णुकाः। मन्दिरात्सुन्दरं देवं गृहीत्वा मन्दरं ययुः।। वृषा वृषार्थी संस्थाप्य जिनं तत्र महापटैः। संस्नाप्य स्तुतिभिः स्तुत्वा गेहे मात्र समार्पयत्।। लक्षवर्षसमायुष्कः शान्तीशो यौवनोन्नतः । चत्वारिंशत्सुचापोच्चाचलाङ्गो वरलक्षणः ॥११४ अथो दृढरथस्तस्माद्यशस्वत्यां च्युतोऽजनि । विश्वसेनात्सुतश्चक्रायुधो भूरिनरैः स्तुतः॥११५ कुलशीलकलारूपवयःसौभाग्यभूषिताः । तत्पिता कन्यकास्तेन यौवने समयोजयत् ॥ ११६ पितृदत्तमहाराज्यो जिनो रेजे जितार्कभः। कालेन जातश्चक्रेशो जितषट्खण्डभूमियः ।।११७ शस्त्रगेहेऽभवंश्चक्रच्छत्रदण्डासयः पराः । तस्य लक्ष्मीगृहे चर्म चूडारत्नं च काकिणी ॥११८
महाशंख, भेरी, सिंहगर्जना और घंटाके ध्वनि अतिशय वृद्धिंगत हुए । इन्द्रोंके साथ अपरिमितदेव अतिशय स्नेहसे हस्तिनापुरमें आये और राजमंदिरसे सुंदर बालकको ग्रहण कर वे मंदरपर्वतपर जा पहुंचे ॥ १११-११२ ॥ पुण्योपार्जनकी इच्छा धारण करनेवाले इन्द्रने मेरुपर्वतपर सिंहासनपर जिनबालकको बैठाया और महाकलशोंसे उसने उसका अभिषेक किया। तदनंतर स्तुतियोंसे स्तवन कर बालकको घरमें माताके स्वाधीन किया ॥ ११३ ॥
[शान्तिप्रभुको चक्रिपदप्राप्ति ] प्रभुशान्तीश्वरकी आयु एक लाख वर्षकी थी। वे तरुण हुए । उनका शरीर चालीस धनुष्य ऊंचा और दृढ़ था । वह एक हजार आठ. लक्षणोंसे युक्त था । दृढरथ अहमिन्द्र सर्वार्थसिद्धिसे च्युत होकर रानी यशस्वतीमें विश्वसेन राजाको अनेक पुरुषोंसे स्तुत्य चक्रायुध नामका पुत्र हुआ ॥ ११४--११५ ॥ विश्वसेन महाराजने कुल, शील, कला, रूप, वय और सौभाग्यसे भूषित ऐसी अनेक राजकन्यायें यौवनावस्थामें प्रवेश किये हुए प्रभु शान्तिनाथके साथ विवाहसे संयोजित की । सूर्यकी कान्तिको अपनी देहकान्तिसे जीतनेवाले प्रभु अपने पितासे महान् राज्य पाकर कुल, शील, कला, रूपसे शोभने लगे । कुछ कालके अनंतर वे चक्रवर्ती हुए । षट्खण्डभूमिके राजाओंको उन्होंने जीतकर स्ववश किया। प्रभुके शस्त्रगृहमें चक्र, छत्र, दण्ड, और खड्ग ये उत्तम रत्न उत्पन्न हुए। तथा लक्ष्मीगृहमें चर्मरत्न, चूडामणिरत्न, और काकिणीरत्न उत्पन्न हुए । हस्तिनापुरमें पुरोहितरत्न, गृहपतिरत्न, सेनापतिरत्न और स्थपतिरत्न ये चार रत्न उत्पन्न हुए । विजयाद्रपर सुंदर कन्यारत्न, गजरत्न और अश्वरत्न उत्पन्न हुए ॥ ११६-११८ ॥
[ शान्तिप्रभुका दीक्षाकल्याणविधि इस प्रकार राज्य करनेवाले, यौवनदर्पसे अभिमानयुक्त प्रभु दर्पणमें जब देखने लगे तब उनको अपने दो प्रतिबिंब दीखने लगे । उनको देखकर संसारसुखसे जिनकी बुद्धि मुक्त हुई है ऐसे वे प्रभु विरक्त होगये ॥ ११९ ॥ वैराग्यके
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