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पाण्डवपुराणम् त्रयस्त्रिंशत्सहस्राब्दैनि:प्रवीचारसत्सुखौ । लोकनाडीस्थितप्रेखद्योग्यद्रव्यावधीक्षणौ ॥१०० तावत्सद्विक्रियौ तौ द्वौ रेजतुर्हस्तमुच्छ्रितो । अनन्तरभवप्राप्यमोक्षलक्ष्मीसमागमौ ॥ १०१ अथ जम्बूमति द्वीपे भरते कुरुजाङ्गले । हस्तिनागपुरे राजा विश्वसेनो विदांवरः ॥ १०२ ऐरावती प्रिया तस्य तरत्तारा सुलोचना। श्रीह्रीधृत्यादिदेवीड्या दिव्यलावण्यधारिणी॥१०३ शयाना शयने रात्रौ स्वमानैक्षिष्ट षोडश । विशन्तं वदने तुङ्गं दन्तिनं साप्यजागरीत्॥१०४ तदा मेघरथो देवो दिवश्युत्वा तमिस्रके । नभस्ये सप्तमीघस्रे तत्कुक्षिक्षेत्रमासदत् ।। १०५ उभिद्रा सा समुन्मुद्रा नेपथ्यार्पितविग्रहा । दत्तदानकरा भासा कल्पवल्लीव जङ्गमा ॥१०६ नत्वा नाथं स्वनाथात्तमाना मान्या सुमानिनी। पृष्ट्वा मत्वा सुस्वमानां फलानि मुमुदे मुहुः।। तदा चतुर्विधा बुद्ध्वा नाकेशा नाकिभिः समं । स्वर्गावतारकल्याणं संप्राप्य समवर्तयन् ॥ वधेमाने तदा भ्रूणे वर्धमानमहोदया । दयावती दयांचके दानं सा दीप्तदेहिका ॥१०९
एक हाथप्रमाणशरीरके धारक थे । आगेके एक जन्महीमें मोक्षलक्ष्मीका समागम जिनको प्राप्त होनेवाला है ऐसे वे अहमिन्द्रदेव सर्वार्थसिद्धिमें मुखसे रहने लगे ॥ ९७-१०१॥
__[ शान्तितीर्थंकरका गर्भकल्याण ] इस जम्बूद्वीपमें भरतके कुरु जांगल देशमें हस्तिनापुर नगरके स्वामी विद्वच्छ्रेष्ठ श्रीविश्वसेननामक राजा थे । उनकी प्रियपत्नीका नाम ऐरावती था। उसके सुनेत्र चंचल और तेजस्वी थे, और दिव्यलावण्य श्री व्ही धृति आदिक देवीओंके द्वारा प्रशंसित था ॥ १०२-१०३ ॥ शय्यापर सोई हुई ऐरादेवीने रात्रौ सोलह स्वप्न देखे और उत्तुंग हार्थीको मुग्वमें प्रवेश करता हुआ देखकर वह जागृत हुई ॥ १०४ ॥ उस समय मेघरथ अहमिन्द्र सर्वार्थसिद्धिसे च्युत होकर भाद्रपद कृष्णपक्ष सप्तमीके दिनमें ऐरायती रानीके उदरमें प्राप्त हुआ अर्थात् गर्भमें आया । निद्रारहित, खिलगई है शरीरकी कान्ति जिसकी, अथवा जिसकी अंगुलीमें उत्तम कान्तियुक्त मुद्रिका है, वस्त्रालंकार जिसने शरीरपर धारण किये हैं, जिसने हाथोंसे याचकोंको दान दिया है, ऐसी वह रानी अपनी कान्तिसे मानो चलनेवाली कल्पलताके समान दीखती थी ॥ १०५-१०६ ॥ विश्वसेन महाराजने मान्य रानी ऐरावतीका योग्य आदर किया। उसने पतिको वंदन कर और उससे स्वप्नोंका फल सुनकर बार बार आनंद माना। उस समय चार प्रकारके देवेन्द्र अपने अपने देवोंको साथ लेकर हस्तिनापुरमें आये और उन्होंने श्रीशान्तिनाथका स्वर्गावतार-कल्याणका विधि किया ॥ १०७-१०८ ॥
1 [ शान्तिप्रभुका जन्माभिषेक ] गर्भस्थ बालक जैसे जैसे बढ़ने लगा वैसे वैसे माताका वैभव भी बढ़ने लगा। दीप्त शरीरवाली माताने दान देकर दीनोंपर दया की। पंद्रह महिनेतक कुबेरने रत्नोंकी वृष्टि करके माताका पूजन किया । ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशीके दिन ऐरावती देवीने उत्तम पुत्रको जन्म दिया ॥ १०९-११० ॥ पुत्रके जन्मसे देवोंके विमानोंमें जन्ममृचक
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