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पाण्डवपुराणम् शृङ्गारसहितायास्तु कीडग्रूपं भविष्यति । ततः कन्याकृतिं कृत्वा चतुरे चतुरं वचः ॥ ८० अवोचतां तके देवि त्वद्रपं द्रष्टुमागते । सा संकल्पितकल्पाढ्या गन्धपुष्पोपशोभिता।।८१ ताम्यां वीक्ष्य निजं शीर्ष धूनितं सैक्ष्य तजगा । किमेतदिति ते देव्यावूचतुश्चतुरे शृणु । यद्रूपं वर्णितं तथ्यमीशानेशेन तत्तथा । यत्स्नानसमये दृष्टं तदिदानीं न विद्यते ॥ ८३ इत्युदीर्य निगीर्य स्खं ते देव्यौ दिवमीयतुः । क्षणक्षयात्स्वरूपस्य विरक्ताश्वासिता प्रिया । सहदीक्षेति वाक्येन नृपेण विरतात्मना । अथैकदा समुद्यानं मनोहरमगानृपः ॥ ८५ खगुरुं जिनमानम्य स्थितं सिंहासने स्थितः । अप्राक्षीच्छ्रेयसे श्रेयः संस्कृतं क्रियया कृती ।। अवादीदेवदेवेशो राजदेव विदां वर । श्रावकाध्ययनप्रोक्तामष्टोत्तरशतक्रियाम् ॥८७ त्रिपंचाशत् क्रियास्तत्र गर्भान्वयसमाह्वयाः । गर्भाधानादिनिर्वाणपर्यन्तविधिवेदिकाः॥८८ दीक्षान्वयक्रियाश्चाष्टचत्वारिंशदुदीरिताः । सुदीक्षादिनिवृत्त्यन्तनिर्वाणपदसाधिकाः ॥ ८९ कन्वयक्रियाः सप्त सत्सिद्धान्तवचोवहाः । सुदृक्स्वरूपमेतासां विधानं फलमप्यदः ॥९०
कहा कि आप अपना मस्तका क्यों हिलाती हैं ? । वे चतुर देवतायें बोली- रानी सुन, ईशानेन्द्रने आपके रूपका जो सत्य वर्णन किया था वह वैसा . नहीं रहा । क्योंकि जो रूप हमने आपका स्नान करते समयमें देखा था वह अब नहीं दीखता है । " ऐसा बोलकर और अपने नामादि कहकर वे स्वर्गको गई । अपना स्वरूप क्षणक्षयी है ऐसा जानकर रानी विरक्त हो गई । “ हम दोनों एक साथ दीक्षा लेकर हे देवि, मनुष्य जन्म सफल करेंगे जिससे अपनेको निश्चल स्वरूप प्राप्त होगा " ऐसा बोलकर विरक्त राजाने रानीका समाधान किया ।। ७८-८४ ॥
[घनरथकवली का उपदेश ] किसी समय मेघरथ राजा मनोहर नामक बनमें गया वहां सिंहासनपर विराजे हुए अपने केवलज्ञानी घनरथ पिताको देखकर वन्दना करके बैठ गया। मोक्षकी प्राप्तिकी क्रियाओंसे संस्कृत हुए परमगुरु घनरथको विद्वान राजाने पूछा कि मोक्षके लिये श्रेष्ठ हेतु-कारण कौनसा आचरण है । तब देवेन्द्र के भी पति-स्वामी ऐसे घनरथ जिन इस प्रकार निरूपण करने लगे-" हे राजाओंके देव, विद्वच्छ्रेष्ट, श्रावकाध्यायनमें १०८ क्रियायें बताई हैं। उनमेंसे गर्भान्वय क्रियायें ५३ हैं । जो गर्भाधानसे लेकर मोक्षपर्यन्तकी विधि बताती हैं । दीक्षान्वयक्रियायें ४८ अडतालीस हैं। जिनमें मिथ्यादृष्टि त्रिवर्णको जैनदीक्षा देनेकी विधिसे मोक्ष तक की क्रियाओंकी विधि बताई गई है । तथा सात कन्वयक्रियायें कही हैं जिनसे सज्जाति, सद्गृहस्थत्व, मुनिपना, सुरेन्द्रपदवी, चक्रवर्तित्व, अर्हत्पदप्राप्ति और सिद्धपद ये सात परम स्थान प्राप्त होते हैं । ये सब १०८ क्रियायें समीचीन सिद्धान्तवचनको धारण करनेवाली हैं अर्थात् जिनागममें कही हैं । धनरथ जिनपतिसे सम्यग्दर्शनका स्वरूप, इन क्रियाओंकी विधि और उनसे फलप्राप्ति तथा श्रावकाचारका सद्धर्म सुनकर प्रभुको मेघरथ राजाने बन्दन किया ।
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