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पंच पर्व
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इति स्तुतिरवं श्रुत्वा सुराः शतमुखं जगुः । कः स्तुतो देव इत्युक्ते प्रोवाच स सुरान्प्रति ॥ नृपो मेघरथः शुद्धदृष्टिः प्रतिमया स्थितः । पूज्यः पूज्यगुणो ज्ञानी मयास्तीति नमस्कृतः।। अतिरूपासुरूपाख्ये तदुक्तं सोढुमक्षमे । आगते विभ्रमैर्हावैर्विलासैर्गीतनर्तनैः ॥ ७५ भावैः प्रजल्पनैश्चान्यैर्न तं चालयितुं क्षमा । विद्युल्लतेव देवाद्रिं यथा निश्चलमुत्तमम् ॥७६ ऐशानोक्तं दृढं मत्वा नत्वा ते स्थानमीयतुः । एकदैशानकल्पेश ः सदोमध्ये व्यवर्णयत्॥ ७७ रूपं च प्रियमित्रायाः समाकर्ण्य समागते । रतिषेणारतीदेव्यौ साक्षात्तद्रूपमीक्षितुम् ॥७८ मज्जनावसरे ते तां गन्धतैलाक्तदेहिकाम् । निर्भूषणां विवसनां निरूप्यावोचतां वचः ॥ ७९
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स्थिरता अवधिज्ञानसे जानकर ईशानेन्द्रने उसकी इस प्रकार स्तुति की " हे राजन् आज आपका उत्कृष्ट धैर्य मैने जान लिया । शुद्ध-चैतन्यमय आपको मैं नमस्कार करता हूँ । संसारके दुःखकी भीति नष्ट करनेवाले, आत्मध्यान में तत्पर रहनेवाले आपको मेरा प्रणाम है । " इस प्रकार मुखसे स्तुति करनेवाले इंद्रको देखकर हे देव, आप किसकी स्तुति कर रहे हैं ? इस तरह देवोंके पूछने पर इन्द्रने उनको कहा । " राजा मेघरथ शुद्ध सम्यदृष्टि है । वह इस समय प्रतिमायोग धारण कर आत्मध्यानमें स्थिर हुआ है । वह पूज्य है और पूज्य-गुणोंका धारक तथा ज्ञानी है । इस लिये मैंने उसकी स्तुति करके उसे नमस्कार किया है" ॥ ७२-७४ ॥ अतिरूपा और सुरूपा नामक दो देवांगनाओंको इन्द्रने राजाकी की हुई स्तुति सहन नहीं हुई । इस लिये उसकी परीक्षा करने के लिये वे स्वर्गसे राजाके पास आगई । हाव, विलास, गीत, नृत्य, भाव और मधुर बोलना आदि उपायोंसे तथा अन्य उपायोंसे भी वे उसे ध्यानच्युत करनेमें असमर्थ हुईं। जैसे बिजली निश्चल और उत्तम मेरूपर्वतको उगमगाने में असमर्थ होती है, वैसे वे दोनों देवियां असमर्थ हुईं । ऐशानेन्द्र जो राजाका वर्णन किया था वह सत्य है ऐसा निश्चय कर वे राजाको वंदन करके स्वस्थानके प्रति चली गईं ॥ ७५–७७ ॥
[ प्रियमित्राको राजाके आश्वासन से संतोष ] किसी समय ऐशानेन्द्र ने अपनी सभा में प्रियमित्रा के रूपका वर्णन किया । वह रतिषेणा और रतिदेवीने सुनकर रानीका साक्षात् रूप देखने के लिये अन्तःपुरमें वे आगई । रानीकी उस समय स्नानकी तयारी हो रही थी । उसने अपने सर्वांगको तेल लगाया था । वस्त्रालंकार रहित रानीको देखकर वे देवी आपस में कहने लगी ' स्नान के समय में भी रानी अपूर्व सुंदर दीखती है, शृंगारसे युक्त होनेपर तो उसके रूपकी महिमा अवर्णनीयही होगी । ' उन देवताओंने दो कन्याओं का रूप धारण किया और चतुर ऐसी वे कन्यायें रानी के साथ चतुरतासे भाषण करने लगी । ' हे देवि, हम दो कन्यायें आपके रूपको देखनेके लिये आयी हैं । ' रानीने स्वतःको रुचनेवाले अलंकार धारण किये थे । गंध और पुष्पों से वह सुशोभित हुई थी । उस समय कन्याओंने अपना मस्तक हिलाया तब रानीने उनको
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