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पाण्डवपुराणम् निरुद्धव्योमयानः सन्पश्यन्भूपं शिलास्थितम् । तमुत्थापयितुं रोषात्तदधः संप्रविष्टवान् ।। नृपोऽङ्गुष्ठाग्रदेशेन ज्ञात्वा तं तां न्यपीडयत् । खगः शिलाभराक्रान्तस्तत्सोढुमक्षमोऽरुदत्।। तदा तत्खेचरी श्रुत्वा क्रन्दनं स्वपतेः परम् । श्रीमेघरथमाश्रित्य भट्टेभिक्षामयाचत ॥ ६४ उत्थापितक्रमः पृष्टः कान्तया प्रियमित्रया । किमेतदिति संग्राह विजयार्धालके पुरे ॥ ६५ विद्युदंष्ट्रपतेर्भार्यानिलवेगा सुतस्तयोः । नृपः सिंहरथो देवं वन्दित्वामितवाहनम् ॥ ६६ अटन्ममोपरि प्रेक्ष्य विमानं गतरंहसम् । दिशो विलोक्य मां प्रेक्ष्य स्वदोत्कोपकम्पितः॥ अस्माभिशलातलेनामा प्रोत्थापयितुमुद्यतः । पीडितोऽयं मदगुष्ठेनेवाप्तास्य मनोरमा॥६८ इत्यन्योन्यं स संतोष्य प्रेषितस्तेन खेचरः । कदाचित्स नृपो दत्त्वा दानं दमवरेशिने ॥ ६९ चारणाय समापासौ पञ्चाश्चर्य चरंस्तपः । आष्टाह्निकविधिं भक्त्या विधाय प्रोषधं श्रितः।।७० प्रतिमायोगतो ध्यायरात्रौ ध्यानं स्थितोऽद्रिवत् । इशानेन्द्रः परिज्ञायैतन्मरुत्सदसि स्थितः।। तवाद्य परमं धैर्य नमस्तुभ्यं चिदात्मने । आत्मध्यानरतायैवं संसारासातमीमुषे ॥ ७२
विद्याधर जा रहा था उसका विमान राजा मेघरथके ऊपरसे गुजर रहा था कि उसकी गति रुक गई । विद्याधरने शिलापर बैठे हुये राजाको देखा । उसको शिलासहित उठाने के लिये वह क्रोधसे शिलाके नीचे धंस गया । राजाने उसका प्रवेश जानकर अपने अंगूठेके अग्रभागसे शिला दबायी । शिलाके बोझसे वह विद्याधर दब गया। उसका भार असह्य होनेसे वह रोने लगा। तब उसकी पत्नी विद्याधरी अपने पतिका आक्रन्दन सुनकर श्रीमेघरथके पास आगई और उसे पतिभिक्षाकी याचना करने लगी ॥ ६१-६४ ॥ राजाने अपना चरण ऊपर उठाया तब प्रियमित्रा रानीने पूछा कि यह क्या बात है ? तब उसने इस प्रकार कहा-- “ विजयाई, पर्वतकी अलका नगरीमें विद्युइंष्ट्र राजा रहता था, उसकी भार्याका नाम अनिलवेगा था, उन दोनोंको सिंहरथ नामक पुत्र हुआ । वह अमितवाहन मुनिको बंदन करके आते समय मेरे ऊपर उसका विमान आकर रुक गया । तब वह विद्याधर चारों ओर देखने लगा। जब मैं उसके दृष्टिपथमें आया तब दर्पसे कोपयुक्त होकर हम सबको शिलातलके साथ उठाने के लिये उद्युक्त हुआ। मैंने मेरे अंगुठेसे उसको दबाया । तब पातिभिक्षा मांगने के लिये उसकी पत्नी मनोरमा यहां आई है ।" इस प्रकार प्रियमित्राको वृत्तान्त कहकर राजाने उस विद्याधरको सन्तुष्ट कर भेज दिया और स्वयं भी अपनी राजधानीको अपनी रानियोंसहित लौट गया ॥ ६५-६८ ॥ किसी समय चारणमुनीश दमवरको दान देनेसे राजाको पंचाश्चर्य-वृष्टिका लाभ हुआ । राजा तपकाभी अभ्यास करता था। किसी समय अष्टाह्निक-व्रतका विधिपूर्वक आचरण कर राजाने प्रोषधोपवास धारण किया और रात्री प्रतिमायोगको स्वीकार आत्मचिन्तनमें मेर-पर्वतके समान निश्चल रहा ॥ ६९-७१ ॥
[ देवांगनाकी आत्मध्यानसे च्युत करने में असफलता ] राजा मेघरथकी आत्मध्यानमें
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