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पाण्डवपुराणम् वनं गतः समद्राक्षीन्मुनि च विमलप्रभम् । नत्वा तद्वदमाच्छ्रुत्वा वृष वैराग्यमानसः ॥ ४२ दिदीक्षे तत्क्षणे राझ्यौ विमलागणिनी श्रिते । अदीक्षेतां तपोयुक्ते युक्तं तत्कुलयोषिताम् ॥४३ सिद्धाचलस्थितो योगी प्रतिमायोगधारकः । सोदवा खगोपसर्गान्स प्राप्तकेवलबोधनः ।। ४४ चक्री कैवल्यमालोक्य नप्तुनिर्विष्णमानसः । सहस्रायुधपुत्राय राज्यं दत्त्वा विनिर्गतः ॥ ४५ श्रीक्षेमंकरमहन्तं प्राप्य दीक्षां समग्रहीत् । योगी सिद्धगिरौ वर्ष प्रतिमायोगमाश्रितः।।४६ वल्मीकाश्रितपादान्त आकण्ठारूढसल्लतः । अश्वग्रीवसुतौ रत्नकण्ठरत्नायुधौ भवान् ॥ ४७ भ्रान्त्वा भूत्वा सुरौ चातिषलमहाबलौ पुनः । तमभ्येत्योपसर्ग ती कर्तुकामा विघातनम् ॥४८ रम्भातिलोत्तमाभ्यां तौ तर्जितौ प्रपलायितौ । ते तं गत्वा यति नत्वा समभ्यर्च्य दिवं गते।। स सहस्रायुधः पुत्र राज्यं शान्तबलिन्यथ । किंचिद्धेतोः समारोप्य दिदीक्षे पिहितास्रवात् ।। योगावसाने संप्राप्य वैभाराद्रिमसूंस्तकौ । अत्याष्टां च सुदीक्षेष्टौ वरिष्ठौ क्लिष्टनिग्रहौ ।।५१
उनके चरणोंको बंदन कर उनके मुखसे धर्मस्वरूप सुन लिया। उसका मन विरक्त हुआ, तत्काल उसने उस मुनीशके पास दीक्षा ली । कनकशांतिकी दोनों रानियोंनेभी विमला नामक आर्यिकाके पास दीक्षा लेकर तप करना प्रारंभ किया । जो कुलीन स्त्रियाएँ होती हैं वे अपने पतिके अनुकूलही आचरण रखती हैं । कुलीन स्त्रियोंकी यह प्रवृत्ति सर्वथा प्रशंसनीय है । एक समय कनकशान्ति मुनिने सिद्धाचलपर प्रतिमायोग धारण किया था। उस समय दुष्टोद्वारा अनेक उपसर्ग किये गये। उनके सहनेसे उनको केवलज्ञान प्राप्त हुआ ॥ ३७–४४ ॥
वज्रायुधचक्रवर्तीका ऊर्द्धोत्रेयकमें जन्म ] वज्रायुध चक्रवर्ती अपने पोतेका कैवल्य देखकर संसारसे विरक्त हुआ। उसने सहस्त्रायुध पुत्रको राज्य दिया और श्रीक्षेमंकर तीर्थकरके पास जाकर दीक्षा ग्रहण की । सिद्धगिरिपर्वतपर उस योगीने एक वर्षतक प्रतिमायोग धारण किया । तब उनके चरणोंके पास बामी उत्पन्न होगई और पावसे कण्ठतक उत्तम वेलियोंने उनको वेट लिया था । अश्वग्रीवके पुत्र रत्नकंठ और रत्नायुध अनेक भवोंमें भ्रमण कर अतिबल, महाबल नामके असुर हुए थे; वे पुनः वज्रायुध मुनिके पास आये । प्राणनाशक उपसर्ग करनेकी उनकी इच्छा थी परंतु रंभा और तिलोत्तमा नामक दो देवांगनाओंने उनको धमकाया तब वे भाग गये । वे देवांगनायें मुनीश्वरके सन्निध जाकर उनका बन्दन तथा पूजन करके स्वर्गको चली गईं। ॥ ४५-४९ ॥ सहस्रायुध राजानेभी वैराग्यका कुछ कारण देख शांतबलि नामक पुत्रको राज्य सौंप दिया और स्वयं पिहितास्रव मुनिके पास दीक्षा ग्रहण की। फिर सिद्धाचल पर्वतपर
१ ब श्लिष्ट ।
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