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पंचम पर्व राज्ये वज्रायुधं न्यस्य दिदीक्षे वनसंगतः । कालेन प्राप्तकैवल्यो वभासे तीर्थराइविभुः ॥३१ अथ वज्रायुधो धीमान्धृतराज्यधुरो ध्रुवम् । मधो मधुरसल्लापे वनं रन्तुं गतो नृपः ॥ ३२ स्वदेवीभिः स्वयं रन्त्वा सुदर्शनजलाशये । जलक्रीडां प्रकुर्वाणे तस्मिंस्तं शिलयाप्यधात् ॥३३ कश्चिद्विद्याधरो दुष्टो नागपाशेन तं नृपम् । अबध्नात्तत्क्षणं चक्रे शिलां स शतखण्डताम् ॥३४ हस्तेन नागपाशं च विपाशीकृतवांस्तदा । एष पौवेभवः शत्रुर्विद्युइंष्ट्रः पलायितः ॥ ३५ भूपोऽपि सह देवीभिः प्रविश्य स्वपुरं स्थितः । धर्मेण तस्य चोत्पन्नं रत्नं मुनिधिभिः समम्।। चक्रवर्तिश्रियं भेजे स भोगव्याप्तमानसः । षट्खण्डमण्डितां पाति पृथ्वीं तस्मिनरेश्वरे ।। ३७ विजयाधर्षाद्यपाश्रेण्यां पत्तने शिवमन्दिरे । मेघवाहनभूपोऽस्य विमलाख्या प्रिया शुभा।।३८ पुत्री कनकमालेति तयोर्विवाहपूर्वकम् । प्रिया कनकशान्तेश्च सा जाता सुखदायिनी।।३९ स्तोकसारपुरेशस्य जयसेनाप्रियापतेः । सुता वसन्तसेनाख्या समुद्रसेनभूपतेः ॥ ४० बभूवास्य प्रिया ताभ्यां सुखी कनकशान्तिवाक् । कदाचिद्वनखेलार्थ कुमारो वनितासखः॥
हुए क्षेमकर जिनेश्वरने वज्रायुधको राज्य दिया । और वनमें जाकर दीक्षा धारण की। कुछ कालके अनंतर उत्पन्न हुआ है केवलज्ञान जिनको ऐसे वे विभु क्षेमकर तीर्थंकर शोभने लगे ॥३०-३१ ॥ इधर राज्यकी धुरा धारण करनेवाले धीमान् वज्रायुध राजा वसंतऋतुमें बगीचे क्रीडा करनेके लिये गये । चारों तरफ कोकिलपक्षी मधुर शब्द कर रहे थे। अपनी रानियोंके साथ स्वयं क्रीडाकर अनंतर सुदर्शन नामक सरोवरमें जलक्रीडा करते समय कोई दुष्ट विद्याधर वहां आगया और राजाको उसने शिलासे आच्छादित किया। अनंतर नागपाशसे उसको बांध दिया। यह विद्युदंष्ट्र विद्याधर राजाका पूर्वजन्मका शत्रु था । राजाने तत्काल शिलाके सौ तुकडे कर दिये तथा हाथसे नागपाशभी निकालकर फेंक दिया। तब वह वहांसे भाग गया । राजाभी अपनी रानियोंके साथ नगरमें प्रवेशकर अपने महलमें आकर आनंदसे रहा। उसको पूर्वपुण्यसे नव-निधियोंके साथ चक्ररत्नका लाभ हुआ ॥ ३२-३६ ॥
[ कनकशान्तिको कैवल्यप्राप्ति ] दशांगभोगोंमें लुब्धचित्त चक्रवर्ती साम्राज्यलक्ष्मीको प्राप्त होकर षट्खण्डभूषित पृथ्वीका पालन कर रहा था । उस समय विजया पर्वतके दक्षिण श्रेणीमें शिवमंदिर नगरमें मेघवाहन राजा राज्य करता था। उसकी प्रियाका नाम विमला था। वह शुभकार्योंमें तत्पर रहती थी। उन दोनोंको कनकमाला कन्या थी। कनकशांतिके साथ उसका विवाह होगया। वह उसे सुख देनेवाली हुई। स्तोकसार नगरके स्वामी समुद्रसेन नामक राजा थे। उनकी प्रियपत्नी जयसेना थी। इनको वसंतसेना नामक कन्या हुई। कनकशांतिका इसके साथ विवाह हो गया। इन दो पत्नियोंसे कनकशांति सुखी हुआ। किसी समय वनमें क्रीडा करनेके लिये वह अपनी दोनों प्रियाओंके साथ गया। वहां उसने विमलप्रभ नामक मुनिको देखा ।
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