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________________ पाण्डवपुराणम् एकात्मकं जगत्सर्वमित्येवं संसृतेः क्षितिः । पुण्यपापफलावाप्तिः कथं संजायते नृणाम् ॥२२ बन्धनाभाव एव स्यान्मोक्षाभावो भवेअनु । नित्ये च क्षणिके चाथ भवेदर्थक्रियाच्युतिः।।२३ तदभावे न सत्वं स्यात्सस्वाभावे न वस्तुता । कल्पनामात्रमत्रैवं जीवादीनां तु मा कथा ।।२४ तदोक्तमिति तच्छ्रुत्वा नृपो वज्रायुधोऽभ्यधात् । श्रृणु सौगत सुस्वान्ते मतिं कृत्वाथ मद्वचः।। क्षणिकैकान्तपक्षेज्यपक्षे चैतद्धि दूषणम् । सर्वथाभेदवादस्तु निरस्यो भेदवादवत् ।। २६ स्याद्वादं वदतां पुंसां पुण्यपापात्रवो भवेत् । ततो बन्धस्य संसिद्धिस्तदभावे शिवं भवेत्।।२७ एवं सिद्धः सुनिर्णीतासंभवद्धाधकत्वतः । स्याद्वादः सर्वदा सर्ववस्तूनां विशदात्मकः ॥ २८ एवं पराजितो लेखः संख्याप्य निजवृत्तकम् । संपूज्य वस्त्रदानायैस्तमगाद् द्वितीयां दिवम् ॥ लब्धबोधिरथो क्षेमंकरः क्षेमंकरो भुवि । प्राप्तलौकान्तिकस्तोत्रः प्रव्रज्यायै समुद्यतः ॥ ३० क्रियाओंमें उपयोगी होना इत्यादि अनेक कार्य होते हैं परंतु वह नित्य एकरूपमें रहनेपर ऐसे अनेक कार्य कैसे होंगे ? क्षणिकपदार्थ एकक्षणके अनंतर नष्ट होनेसे उससे कोई भी कार्य नहीं होगा और लेना देना आदि व्यवहार नष्ट हो जायेंगे। अर्थक्रियाके अभावमें सत्त्वधर्म-अस्तित्वधर्म नहीं रहेगा । उसके विनाशसे पदार्थकी वस्तुताभी उसको छोड देगी। इसप्रकार विचार करनेसे जीवादिक वस्तु कल्पनामात्रही रहती है। हे राजन् , आप जीवादिकोंकी कल्पना छोड दें" ॥ १९-२४ ॥ [नित्यानित्यवाद-खण्डन ] विचित्रचूलदेवका सर्व भाषण सुनकर वज्रायुव राजाने इस प्रकार कहा- “ हे सौगत अर्थात् हे बुद्धके अनुयायी, अपने मनमें बुद्धि स्थिर कर मेरा वचन सुनो। क्षणिकपक्षमें और अन्यपक्षमें अर्थात् नित्यपक्षमें जो तुमने दूषण दिये हैं वे योग्यही हैं । सर्वथा अभेदवादभी सर्वथा भेदवादके समान खण्डन करने योग्य है। परंतु स्याद्वादसे विवेचन करनेवालोंके मतमें कोई दोष उत्पन्न होतेही नहीं। वस्तु किसी अपेक्षासे भिन्न, किसी अपेक्षासे अभिन्न, किसी अपेक्षासे नित्य, किसी अपेक्षासे अनित्य, किसी अपेक्षासे छोटी व किसी अपेक्षासे बडी होती है, और कथंचित् नित्य अनित्य माननेसे बंधमोक्ष, पाप पुण्य आदिक अवस्थायें सिद्ध होती हैं। बंधके अभावसे मोक्षप्राप्ति होती है। यह स्याद्वाद सुनिर्णीत है, इसमें बावकोंका संभव हैही नहीं। यह स्याद्वाद सर्व जीवादिक वस्तुओंका विशद निर्णय करनेका निर्दोष उपाय है " ॥ २५-२८ ॥ इस प्रकार भाषण करके विचित्रचूलका राजाने पराजय किया। तब उस देवने अपना सर्व वृत्त कह दिया और वस्त्रदानादिकोंसे राजाका आदर करके वह ऐशान स्वर्गको चला गया ॥ २९ ॥ [ वज्रायुधको चक्रवर्तिपद-लाभ ] इसके अनंतर-पृथ्वीका क्षेम-कल्याण करनेवाले क्षेमकर तीर्थकरको वैराग्य हुआ । लौकान्तिक देवोंने आकर उनकी स्तुति की । दीक्षाके लिये उद्युक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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