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पंचमं पर्व
९७ श्रीषेणा भामिनी तस्य साक्षाच्छीरिव शालिनी। शान्त्यन्तकनकः सूनुस्तयोः सुकनकच्छविः।। पुत्रपौत्रादिभिः क्षेमंकरो राज्यकरोऽप्यभात् । एकदेशानकल्पेशो वज्रायुधसुदर्शनम् ॥१६. स्तुवन्सदसि संतस्थौ गुणाधारं स्फुरद्गुणम् । अक्षमस्तत्स्तवं सोढुं लेखो विचित्रचूलकः।।१७ वज्रायुधं बुधः प्राप्य कृतरूपविपर्ययः । यथोचितं महीनाथं वादकण्डूययावदत् ।। १८ राजन् जीवादितत्चानां विद्वानसि विचारणे । ब्रूहि पर्यायिणो भिन्नः पर्यायः किं विपर्ययः॥ चेद्भिन्नः शून्यतावाप्तिरभावाच्च तयोर्बुवम् । एकत्वसंगरेऽप्येतन युक्तिघटनामटेत् ।। २० जीवो वा पर्ययो वा स्यादन्योन्यागोचरत्वतः । चेदस्तु द्रव्यमेकं ते पर्याया बहवो मता।।
श्रीषेणा सहस्रायुधकी पत्नी थी। इन दोनोंको सुवर्णकान्तिका धारक कनकशान्ति नामक पुत्र हुआ। इस प्रकार पुत्रपौत्रादिकोंके साथ राज्यपालन करनेवाले श्रीक्षेमंकर महाराजभी शोभने लगे ॥ १५-१६ ॥ किसी समय ऐशानस्वर्गका इन्द्र अपनी सभामें वज्रायुध राजाके निःशंकितादि गुणोंके आधारभूत सम्यग्दर्शनकी प्रशंसा कर रहा था । गुणोंसे शोभनेवाली वह प्रशंसा विचित्रचूल नामक देव नहीं सह सका। वह रूपपरिवर्तन करके अर्थात् पण्डितका रूप धारण कर वज्रायुध राजाके पास आगया। वाद करनेकी पद्धतिके अनुसार वाइकी इच्छासे इसप्रकार बोलने लगा ॥ १७-१८ ॥ " हे राजन् , आप जीवादितत्त्वोंका विचार करनेमें चतुर हैं। जीवादि वस्तुओंसे पर्याय भिन्न हैं या अभिन्न हैं ? यदि जीवादिकसे पर्याय भिन्न मानोगे तो जीवादि द्रव्योंको शून्यताप्राप्ति होगी अर्थात् अग्निसे उष्णता भिन्न होनेपर अग्निका जैसा अभाव होता है, वैसे जीवादिक द्रव्यभी उनके पर्यायोंसे भिन्न होनेपर शून्य हो जावेंगे। और द्रव्य तथा पर्यायोंका-दोनोंका नाश होगा। यदि जीवादिक द्रव्योंसे पर्याय अभिन्न मानोगे तो भी युक्तिसे जीवादिकोंकी सिद्धि न होगी। अभिन्नपक्षमें पर्याय रहेंगे वा पर्यायी रहेंगे। दोनोंका अस्तित्व सिद्ध नहीं होगा।
और दोनों एक दूसरेके संबंधी नहीं रहेंगे। जीवके ये मनुष्यादिपर्याय हैं और जीव इनका आधारभूत स्वामी है यह सम्बंध सिद्ध नहीं होगा। यदि द्रव्य एक और पर्याय अनेक मानते हो तो सर्व जगत् एकात्मक हो जायगा । क्योंकि पर्याय अनेक होनेपरभी वस्तुभूत-वास्तविक नहीं हैं। ऐसा माननेपर संसारका नाश होगा। फिर मनुष्योंको पुण्यपापोंके फलोंकी प्राप्ति कैसे होगी? बंधनाभाव होनेसे मोक्षका अभाव होगा। अर्थात् अकेला जीव रहनेसे बंध मोक्षादिकोंकी सिद्धि नहीं होगी। सर्वथा पदार्थ नित्य माननेपर जीव नित्य एकस्वरूपकाही मानना पडेगा और उसकी नाना अवस्थायें नहीं होंगी। क्योंकि पूर्वावस्था छोडकर उत्तरावस्था धारण करनेपर नित्यस्वरूप नष्ट होगा। नित्य अपनी पूर्वावस्था नहीं छोडता और उत्तरावस्था धारण नहीं करता। पदार्थको नित्य या अनित्य मानने पर उनकी अर्थक्रिया नष्ट होगी। जलकी अर्थक्रिया तृषाशमन करना, धूपसे भाप बनना, स्नानादि
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