________________
पञ्चमं पर्व
जित्वाजव्यं जगामाजिगमिषुबलिनं शत्रुपक्षं क्षणेन । यः सद्दिव्यापराधाजितमिति सुभगं नामधेयं स जीयात् । हत्वा वीर्य सुवीर्याद्दमितरिपुपतेः शौर्यधुर्योऽप्यनन्त
वीर्यो भाति प्रभावाद्वषविशदमतेः सर्वशक्तिप्रदेष्टुः ।। २८० इति त्रैविद्यविद्याविशदभट्टारकश्रीशुभचन्द्रप्रणीते ब्रह्मश्रीपालसाहाय्यसापेक्षे श्रीपाण्डवपुराणे
भारतनानि शान्तिनाथभवषट्कवर्णनं नाम चतुर्थ पर्व ।। ४॥
पञ्चमं पर्व। अजितं जितकारिमपराजितमर्थतः । जितजेयं यजे युक्त्या विराजितजनार्चितम् ॥ १ त्रिखण्डस्याधिपत्यं च विधाय विविधैः सुखैः । केशवः प्राविशत्प्रान्ते पापाद्रलप्रभावनिम् ॥ बलोऽप्यनन्तसेनाय राज्यं दत्त्वा यशोधरात् । प्रात्राज्य तृतीयं बोधं प्राप्य संन्यस्य मासकम्।।
विद्याधर राजाके वीर्यका ( शक्तिका ) अपने उत्कृष्ट वीर्यसे नाश किया है, जो शौर्यगुणमें श्रेष्ठ है, ऐसा अनन्तवीर्य नारायणभी, धर्मके विस्तारमें जिसकी मति है और सर्वशक्तियोंको प्रगट करनेवाले ऐसे बलदेव अपराजितके सामर्थ्यसे सुशोभित होता है ॥ २७९-२८० ॥
ब्रह्मश्रीपालकी सहायताकी अपेक्षा जिसमें हुई है, ऐसे त्रैविद्यविद्याओंमें निर्मल भट्टारक श्रीशुभचन्द्रप्रणीत पाण्डवपुराणमें अर्थात् महाभारतमें श्री शान्तिनाथके छह भवोंका वर्णन करनेवाला चौथा पर्व समाप्त हुआ ॥ ४ ॥
( पर्व पांचवा ) जिन्होंने कर्मरूपी शत्रुओंको पराजित किया है, तथा जो किसीभी महान् पराक्रमी पुरुषोंद्वारा पराजित नहीं हुए हैं, अर्थात् जो अनंतवीर्य हैं, प्रमाण नयरूप युक्तिकेद्वारा जीतने योग्य वादियोंको जिन्होंने जीत लिया है, विराजितजनोंसे यानी गणधरादि मुनियों तथा इन्द्रादिकोंसे जो पूजनीय हैं, ऐसे अजित जिनेश्वरकी मैं पूजा करता हूं ॥१॥
[ अपराजितको इन्द्रपदलाभ ] अनेक प्रकारके सुखोंके साथ त्रिखण्डस्वामित्वका अनुभव लेकर आयुष्य समाप्त होनेपर पापसे केशव अनंतवीर्य रत्नप्रभा नरकमें उत्पन्न हुआ ॥२॥ अपराजित बलभद्रनेभी अनंतसेनको राज्य देकर यशोधरमुनिसे दीक्षा धारण की । उसको अवधिज्ञान प्राप्त हुआ। एक मासपर्यन्त संन्यास धारणकर वह अच्युतस्वर्गमें इन्द्र हुआ ॥ ३ ॥ धरणेन्द्रसे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org