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________________ ९४ पाण्डवपुराणम् प्रेषितांश्च पुनर्भग्नान्वीक्ष्यातस्थौ खगो युधि । नर्तक्योर्न प्रभावोऽयं चिन्तयन्निति निष्ठुरम् || संप्राप्तविद्यया रामो युयुधे युद्धविक्रमी । अनन्तवीर्यमालोक्य चिरं युद्ध्वा खगाधिपः।।२७४ मुमोच चक्रमाक्रम्य चक्रिचक्रभयप्रदम् । तं परीत्य स्थितं हस्ते तेन तेन खगो हतः ।। २७५ ततः खगाः समागत्य सर्वे नैमुत्रिखण्डपौ । खचरैः सह संपन्या चेलतुस्तौ प्रभाकरीम् ।।२७६ गच्छन्ती मार्गतो दृष्ट्वा जिनं कीर्तिधराह्वयम् । नत्वा श्रुत्वा च सद्धमं कनकश्रीभवान्तरान् ॥ श्रुतवन्तौ निशम्यासी प्रावाजीद्रागमुक्तधीः । तां प्रशस्य जिनं नत्वा निर्गतौ समवसृतेः || २७८ बुधजननतपादौ दीप्यदाप्तप्रमादौ निहतरिपुविवादौ मुक्तसर्वापवादौ । प्रतिगतविविषादौ लब्धधर्मप्रसादौ कृतसुकृतनिनादौ जग्मतुस्तां नृपौ तौ ।। २७९ किया || २७२ ।। दमितारिने पुनः पराक्रमी योद्धाओंको भेज दिया, पुनः अपराजितने उनको पराजित किया। तब चक्रवर्तीने, इतना सामर्थ्य नर्तकियोंका नहीं हो सकता, अतः अब स्वयं युद्धके लिये चलना चाहिये ऐसा विचार करके निष्ठुरता से रणभूमिमें प्रयाण किया || २७३ ॥ अपराजित बलभद्रने प्राप्त हुई विद्याओंके साहाय्यसे दमितारिके साथ युद्ध किया । तदनंतर अनन्तSafar देखकर विद्याधर दमितारिने उसके साथ दीर्घकालतक युद्ध किया । अन्तमें चक्रवर्तीने सैन्यको भय दिखलानेवाला चक्र हाथमें लेकर वह अनन्तवीर्यके ऊपर छोड दिया । अनन्तवीर्यको प्रदक्षिणा देकर वह उसके हाथमें आया । तत्र अनंतवीर्यने उसे छोडकर दमितारिको मार दिया । ॥ २७४ -२७५ ॥ तदनंतर सर्व विद्याधर आकर त्रिखंडपति अपराजित और अनन्तवीर्यको नमस्कार करने लगे। तब वे विद्याधरोंके साथ तथा संपदा के साथ प्रभाकरी नगरीको चले गये ॥ २७६ ॥ चलते हुए उन्होंने मार्गमें कीर्तिधर नामक जिनेश्वरको वंदन किया। उनसे धर्मका स्वरूप और कनकश्रीके भवान्तर सुने || २७७ ॥ भवान्तर सुननेपर कनक श्रीकी बुद्धि रागभावरहित हो गई और उसने दीक्षा धारण की, अपराजितने कनकश्रीकी प्रशंसा की, और जिनेश्वरको वन्दनकर समवसरणसे प्रयाण किया || २७८ ॥ जिनके चरणोंको देव नमस्कार करते हैं, जो उत्कट आनंदको प्राप्त हुए हैं, जिन्होंने शत्रुओंका विवाद- कलह नम्र किया है- अर्थात् शत्रुओंका जिन्होंने नष्ट किया है, जिनके सर्व प्रकारके अपवाद ( निन्दा) दूर हुए हैं, जिनको खेद नहीं है, धर्मसे जिनको प्रसन्नता प्राप्त हुई है, जिनके पुण्यका शब्द सर्वत्र सुना जाता है, ऐसे वे दोनों बलभद्र और नारायण पदके धारक अपराजित और अनंतवीर्य प्रभाकरी नगरीको गये । अजेय तथा आक्रमण करनेकी इच्छा करनेवाले प्रबल शत्रुपक्षको शीघ्रही जीतकर जिसने दिव्य और सुन्दर ' अपराजित' नाम प्राप्त किया है, वह अपराजित बलभद्र जयवंत होवे । जिसने दमितारि Jain Education International १ स म नुनपादौ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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