SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ पर्व पार्श्व विपुलविमलमत्योः श्रुत्वा मुनीशयोः । मासमात्रं महीनाथावायुर्धर्मदयोद्यतौ ॥ २४२ दत्त्वार्कतेजसे खेटः श्रीदत्ताय महीपतिः । राज्यमाष्टाह्निकी पूजां कृत्वा नन्दनपार्श्वगे।।२४३ चन्दने मुनिसंगेन प्रायोपगमनोद्यतौ । वने संन्यस्य खग्राणान्विससर्जतुरुत्तमान् ।।२४४ कल्पे त्रयोदशे नन्द्यावर्तेऽभूद्राविचूलकः । खगः श्रीविजयोऽप्यत्र स्वस्तिके मणिचूलकः।।२४५ विंशति सागरान्मुक्त्वा जीवितं तौ ततो मृतौ । द्वीपेत्र प्राग्विदेहाख्ये सद्वत्सकावतीति च ।। देशे प्रभावतीपुर्याः पत्युः स्तिमितसागरात् । वसुंधयाँ सुतो जज्ञे रविचूलोऽपराजितः।।२४७ स्वस्तिकाद्विच्युतो देवो मणिचूलोऽप्यभूत्सुतः । श्रीमाननन्तवीर्याख्यो देव्यामनुमतौ ततः ॥ नित्योदयौ जगन्नेत्रकमलाकरभास्करौ । पमानन्दकरौ तौ च रेजतुः प्राप्तयौवनौ ।। २४९ । भूपः कुतश्चिदासाद्य वैराग्यमात्मजौ तकौ । तदैव स समाहृय राज्ये संस्थाप्य निर्गतः।।२५० और खगपति मुखामृतका उपभोग लेने लगे ॥ २४१ ॥ कदाचित् विपुलमति और विमलमति मुनियोंके समीप दोनों राजाओंने अपनी आयु मासमात्र अवशिष्ठ है ऐसा सुना तब वे धर्म और दया करनेमें तत्पर रहें। अमिततेज राजाने अपना राज्य अर्कतेज नामक पुत्रको दिया और श्रीविजयने श्रीदत्त पुत्रको दिया। उन्होंने आठ दिनतक अष्टाहिक पूजा की अनंतर नन्दनवनके समीप चन्दनवनमें मुनियोंके आश्रयसे वे प्रायोपगमनमरणमें उद्युक्त हुए। अर्थात् उन्होंने अपना वैयावृत्य स्वयं नहीं किया, और दूसरोंके द्वाराभी नहीं करवाया। आहार तथा कषायोंका त्याग कर पंचनमस्कारका स्मरण करते हुए समाधिपूर्वक प्राण छोडे ॥ २४२-४४ ॥ तेरहवे कल्पमें—आनतस्वर्गमें नंद्यावर्त विमानमें श्रीअमिततेज रविचूलनामक महर्द्धिक देव हुआ और श्रीविजयराजा स्वस्तिक विमानमें मणिचूल नामक महर्द्धिक देव हुआ। बीससागरतक देवसुखका अनुभव लेनेपर उन्होंने प्राणत्याग किया। अपराजित और अनंतवीर्य बलभद्र और नारायणपदके धारक थे । इस जम्बूद्वीपमें पूर्व विदेहक्षेत्रके वत्सकावती देशमें प्रभावती नगरके अधिपति स्तिमितसागर राजा थे । उनको रानी वसुंधरासे रविचूलदेव अपराजित नामक पुत्र हुआ। स्वस्तिकविमानसे च्युत हुआ मणिचूल देवभी अनुमति नामक रानीसे लक्ष्मीमपन्न अनंतवीर्य नामक पुत्र हुआ ॥ २४५-२४८ ।। जैसे सूर्य प्रतिदिन उदित होता है वैसे ये दोनों राजपुत्र नित्योदय-नित्यवैभवसे युक्त थे। सूर्य कमलोंको प्रफुल्लित करता है वैसे ये दोनों राजकुमारभी जगतके नेत्ररूपी कमलोंको विकसित करते थे। सूर्य पोंकों आनंदित करता है। ये दोनों पना-लक्ष्मीको आनंदित करते थे। इस प्रकार इन दोनों राजपुत्रोंने यौवनमें प्रवेश कर अतिशय शोभा धारण की ॥ २४९ ॥ स्तिमितसागर राजाको किसी कारणसे वैराग्य हुआ। उसने उसी समय अपने दोनों पुत्रोंको बुलाकर राज्यपर स्थापन कर स्वयंप्रभ जिनेश्वरके पास जाकर उनके चरणमूलमें संयम धारण किया। उस समय धरणेन्द्रकी ऋद्धिको देखकर उस पदकी प्राप्तिके लिये स्तिमितसागर मुनिराजने निदान किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy