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पाण्डवपुराणम् आकाशगामिनी चान्योत्पातिनी च वशंकरा । आवेशनी शत्रुदमा तथा प्रस्थापनी परा॥२३० आवर्तनी प्रहरणी प्रमोहिनी विपाटिनी । संक्रामणी संग्रहणी भञ्जनी च प्रवर्तनी ॥ २३१ प्रहापनी प्रमादिन्या प्रभावर्ती पलायिनी । निक्षेपणी च चाण्डाली शबरी च परा स्मृता ॥ गौरी खट्वाङ्गिका श्रीमद्गण्याच शतसंकुला। मातङ्गी रोहिणी ख्याता कूष्माण्डी वरवेगिका ।। महावेगा मनोवेगा चण्डवेगा लघूकरी । पर्णलध्वी च चपलवेगा वेगावती मता ॥ २३४ महाज्वालाभिधा शीतोष्णादिवैतालिके मते । सर्वविद्यासमुच्छेदा तथा बन्धप्रमोचनी ॥२३५ प्रहारावरणी युद्धवीयो च भ्रामरी खगम् । भोगिन्याद्याः श्रिता विद्याः कुलजातिप्रसाधिताः।। तासां श्रेण्योर्द्वयोश्चाधिपत्येन विदितो भुवि । भुञ्जन्भोगान्कदाचिच्च दत्वा दानं मुनीशिने ।। प्रापद्दमवराख्यायाश्चर्यपञ्चकमम्बरे । चारणायान्यदामिततेजःश्रीविजयौ वने ।। २३८ । सुरदेवगुरू दृष्ट्वा नत्वा च मुनिपुङ्गवौ । श्रुत्वा धर्म ततोऽप्राक्षीत्पुनः श्रीविजयो नतः ॥२३९ आत्मनो भवसंबन्धं पितुश्च भगवान्मुनिः । श्रुत्वा प्राह भवांस्तस्य पितुश्च विश्वनन्दिनः ॥२४० तन्माहात्म्यं निशम्यासौ तत्पदाप्तनिदानकः । भूचरैः खचरैः सेव्यौ भेजतुस्तौ सुखामृतम् ।।
प्रमोहिनी, विपाटिनी, संक्रामणी, संग्रहणी, भंजनी, प्रवर्तिनी, प्रहापनी, प्रमादिनी, प्रभावती, पलायिनी, निक्षेपणी, चाण्डाली, शबरी, गौरी, खटाङ्गिका, श्रीमद्गुण्या, शतसंकुला, मातंगी, रोहिणी, कूष्मांडी, वरवेगा, महावेगा, मनोवेगा, चण्डवेगा, लघूकरी, पर्णलध्वी, चपलवेगा, वेगावती, महाज्वाला, शीतवैतालिका, उष्णवैतालिका, सर्वविद्यासमुच्छेदा, बंधप्रमोचिनी, प्रहारावरणी, युद्धवीर्या, भ्रामरी, भोगिनी आदि विद्याओंने अमिततेज विद्याधरका आश्रय लिया था। ये विद्या विशिष्ट कुल और विशिष्ट जातिवाले विद्याधरोंके द्वारा सिद्ध की जाती थी परंतु अमिततेज के विशाल पुण्योदयसे इन विद्याओंने उसका स्वयं आश्रय लिया था ॥ २२९-२३६ ॥ अमिततेज विद्याधर इन विद्याओंका और दोनो श्रेणिओंके विद्याधर- राजाओंका अधिपति होनेसे भूतलमें सर्वत्र प्रसिद्ध हुआ । भोगभोगनेवाला वह सुखसे रहने लगा ॥ २३७ ॥ किसी समय अमिततेजने दमवर नामक आकाशचारण मुनिराजको आहार दिया तब आश्चर्यपंचककी प्राप्ति हुई। अर्थात् देव अहो दान, अहो दान इसप्रकारकी स्तुति, रत्नवृष्टि, ठंडा सुगंधित पवन बहना, सुगंधित जलवृष्टि होना, और आकाशमें देववाद्योंका बजना इस प्रकार पंचाश्चर्यवृष्टि हुई ॥ २३८ ॥ अन्य किसी समयमें श्रीविजय और अमिततेज दोनों विद्याधरोंने सुरगुरु और देवगुरु ऐसे श्रेष्ठ मुनियोंको देखकर वंदन किया। उनसे धर्मश्रवण कर नम्रतासे श्रीविजय अपने और अपने पिताके भवसंबंध पूछने लगा। श्रीविजयका प्रश्न सुनकर भगवान् मुनिने उसके और विश्वको आनन्दित करनेवाले उसके पिता त्रिपृष्टके भव कहे ॥ २३९-२४० ॥ पिताके माहात्म्यको सुनकर श्रीविजयने नारायणपदकी प्राप्तिका निदान किया । भूचर और खेचर राजाओंसे सेवनीय ऐसे वे भूपति
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