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चतुर्थ पर्व पनाम भवकान्तारं पापारिक जायते शुभम् । वने स भूतरमण ऐरावतीसरित्तटे ॥ २२० । तापसाश्रमसंवासिकौशिकारसमजायत । सुतश्चपलवेगाया मृगशृङ्गोऽपि तापसः ॥ २२१ दृष्ट्वा चपलवेगस्य विभूति खेचरेशितुः । निदानमकरोन्मूढोऽशनिघोषस्ततश्युतः॥२२२ जातोऽयं स्नेहतस्तारां सुतारां चाग्रहीद्धटात् । भवे त्वं पञ्चमे भावी चक्रवर्ती जिनेश्वरः॥२२३ श्रुत्वेत्यशनिघोषाख्यो जनन्यस्य वयंप्रभा । सुताराप्रमुखाश्चान्ये जगृहुः संयमं परम् ॥२२४ प्रवन्ध ते जिनं जग्मुश्चक्रवर्तिसुतादयः । खं खं पुरं पताकाढ्यं विद्यशामिततेजसा ॥ २२५ पर्वसु प्रोषधं कुर्ववर्ककीर्तिसुतः शुभः । प्रायश्चित्तं चरन्योग्यं पूजया पूजयञ्जिनम् ।। २२६ ददहानं सुपात्रेभ्यः शृण्वन्धर्मकथां पराम् । निर्दोष निर्मलं शान्तं सम्यक्त्वं श्रितवाशमी।। प्रजानां पितृवत्पाता संयमीव शमं श्रितः । धयं प्रावर्तयत्कर्म लोकद्वयहितोद्यतः ॥ २२८ प्रज्ञप्तिः स्तम्भनी वह्निजलयोः कामरूपिणी । विश्वप्रकाशिका विद्या प्राप्रतीपातकामिनी॥
[ कपिलभत्र कथा ] पूर्वजन्ममें जो दुष्ट कपिल था, वह संसार-वनमें घूमने लगा। योग्य ही है, कि पापसे कभी किसीका भला होता है ? संभूतरमण नामक वनमें ऐरावती नदीके तटपर तपस्वियोंके आश्रममें रहनेवाला कौशिक नामा ऋषि था। उसकी पत्नीका नाम चपलवेगा था । संसारमें घूमनेवाला यह कपिल उन दंपतीका मृगशङ्ग नामक पुत्र हुआ। वह अपने पिताके समान ऋषि होगया ॥ २२०-२२१ ॥ चपलबेग नामक विद्याधरका वैभव देख उस मूटने आगेके भवमें मुझे ऐसाही वैभव मिले इस तरह निदान किया। तदनंतर आयु समाप्त होनेसे मरकर अशनिघोष विद्याधर हुआ। पूर्व जन्मके स्नेहके वश होकर वह सौंदर्यसे चमकनेवाली सुताराको हठसे हरण कर ले गया ॥ २२२-२२३ ॥ हे अमिततेज, तू अब यहांसे पांचवे भवमें चक्रवर्ती तीर्थकर शांतिनाथ होनेवाला है। यह सब वृत्तान्त सुनकर अशनिघोष उसकी माता आसुरी, स्वयंप्रभा, सुताराआदि और अन्य भव्योंने भी उत्तम संयम धारण किया ॥ २२४ ॥ चक्रवर्तीपुत्र श्रीविजय, आदि भूपाल जिनेश्वरको वंदनकर पताकाओंसे सुशोभित अपने अपने नगरको अमिततेज विद्याधरप्रभुके साथ गये। शुभकार्य-तत्पर शांतकषायी अर्ककीर्तिपुत्र अमिततेज पर्वतिथियों में प्रोषधोपवास, व्रताचरणमें दोष लगनेपर योग्य प्रायश्चित्त-धारण, जिनेश्वरका अष्ट द्रव्योंसे पूजन, सुपात्रोंको दान देनाये कार्य करता था। उत्तम धर्मकी कथाओंका श्रवण करते हुए उसने निर्दोष निर्मल और शांतिदायक सम्यग्दर्शन धारण किया ॥ २२५-२२७ ।। अपने पिताके समान प्रजाओंका पालक, संयमीके समान समताको धारण करनेवाला, इहलोक परलोकके हितकार्यमें तत्पर अमिततेज विद्याधरेश गृहस्थके देवपूजादिक षट्कर्म स्वयं आचरता हुआ प्रजाओंकोभी इन कर्मोमें तत्पर करता था ॥ २२८ ॥ प्रज्ञप्ति, अग्निस्तंभनी, जलस्तंभनी, कामरूपिणी, विश्वप्रकाशिका, अप्रतीघातकामिनी, आकाशगामिनी, उत्पातिनी, वशंकरा, आवेशिनी, शत्रुदमा, प्रस्थापनी, आवर्तनी,
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