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क्षत्रियके स्वभावको प्रगट कर कृष्णने अर्जुनको युद्धके निमित्त उद्यत किया' ।
परन्तु शुभचन्द्र के प्रस्तुत पाण्डवपुराणमें इस प्रकार उल्लेख नहीं है । वहां इतना मात्र कहा गया है कि कुरुक्षेत्रमें दोनों सेनाओंके आजानेपर अर्जुनने सारथीसे रथसहित · राजाओंका परिचय पूछा। तदनुसार सारथीकेद्वारा घोडों व ध्वजाका निर्देश करते हुए भीष्मादिकोंका परिचय करा देनेपर अर्जुन स्वयंही युद्धके लिये उद्युक्त हो गया।
पाण्डवपुराणान्तर्गत कथाका सारांश प्रस्तुत ग्रन्थमें पाण्डवोंकी जिस रोचक कथाका वर्णन किया गया है । वह हरिवंशपुराण एवं उत्तरपुराण आदि अन्य दिगम्बर ग्रन्थों, हेमचन्द्र सूरिविरचित त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र एवं देवप्रभसूरिविरचित पाण्डवपुराण आदि श्वेताम्बर ग्रन्थों, तथा महाभारत, विष्णुपुराण व चम्पूभारत आदि अनेक वैदिक ग्रन्थोंमें भी पायी जाती है। सम्प्रदायभेद और ग्रन्थकर्ताओंकी रुचिके अनुसार वह अनेक धाराओंमें प्रवाहित हो गई है । उक्त कथा यहां यद्यपि प्रस्तुत ग्रन्थके अनुसारही दी जा रही है, फिर भी टिप्पणोंद्वारा यथास्थान उसकी अन्य ग्रन्थोंसेभी तुलना की जायेगी।
पुराणका उद्गम यहां प्रस्तुत पुराणको उद्गमस्थान बतलाते हुए कहा गया है कि जब चौविसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामीका समवसरण राजगृह नगरीके समीप वैभार पर्वतपर आया था तब राजा श्रेणिक सपरिवार उनकी वन्दनाके लिये गये । वन्दन करके उन्होंने वीरप्रभुसे धर्मश्रवण किया। तत्पश्चात् उन्होंने गौतम गणधरकी स्तुति कर उनसे कुरुवंशकी उत्पत्ति, उसमें उत्पन्न राजाओंकी परम्परा और कौरव-पाण्डवोंके जीवनवृत्त आदिके जानने की अभिलाषा व्यक्त की। तदनुसार गौतम गणधरने कुरुवंश आदिका विस्तारपूर्वक वर्णन किया। वही पुराणार्थ पूर्वपरम्परासे शुभचन्द्राचार्यको प्राप्त हुआ। इस प्रकार ग्रन्थकर्ताके द्वारा इस पुराणका उद्गम भगवान् महावीर प्रभुसे बतलाया गया है। यही पद्धति प्रायः सभी दिगम्बर पुराणग्रन्थोंमें पायी जाती हैं।
१ गुरौ पितरि पुत्रे वा बान्धवे वा धृतायुधे । वीतशर्कु प्रहर्त्तव्यमितीहि क्षत्रियव्रतम् ।। बान्धवा बान्धवास्तावद्यावत् परिभवन्ति न । पराभवकृतस्तूचैः शीर्षच्छेद्या भुजावताम् ।। वैश्वानरः करस्पर्श मृगेन्द्रः श्वापदस्वनम् । क्षत्रियश्च रिपुक्षेपं न क्षमन्ते कदाचन ।।
दे. प्र. पां. च. १३, २५-२७. २ शु. चं. पां. पु. १९, १७२-१७६.
३ एक पुरुषके आश्रित कथाको चरित्र और तिरेसठ शलाकापुरुषोंके आश्रित कथाको पुराण कहा जाता है । ये दोनोंही प्रथमानुयोगमें गर्भित हैं । (र. श्रा. प्रभाचन्द्रीय टीका) २-२
___ ४ हरिवंशपुराण (२-६२ ) और उत्तरपुराण (७४-३८५ ) में वैभारके स्थानमें विपुलाचल तथा पूज्यपादसूरिविरचित निर्वाणभक्ति (१६) में वैभार पर्वतकाही उल्लेख है।
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