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________________ (८) इसके पूर्व, इस ग्रन्थमें [ १, २१-१५४] राजा शान्तनुको गंगा पत्नीका लाभ और पश्चात् उसका वियोग किस प्रकार हुआ, इसकाभी विस्तृत कथन पाया जाता है। जिसे भ. शुभचन्द्रने नहीं अपनाया। इसी प्रकार कर्णकी उत्पत्ति [ दे. प्र. पां. च. १, ४६९.५५४ तथा शु. चं. पां. पु. ७, १५०-२६७, ] लाक्षागृहदाह [ दे. प्र. पां. च. ७, १३५-१९७ तथा शु. चं. पां. पु. १२, ५२१७५ ] तथा अर्जुन और भील ( एकलव्य ) का उपाख्यान [ दे. प्र. पां. च. ३, २७९ से ३२५ तथा शु. चं. पां. पु. १०, १८५-२६८ ] आदि कितनेही ऐसे कथानक हैं जो देवप्रभ सूरिके पाण्डव चरित्रसे थोडे बहुत परिवर्तनके साथ प्रस्तुत पाण्डवपुराणमें अपनाये गये हैं। इस प्रकारके बहुतसे श्लोक दोनो ग्रन्थों में पाये जाते हैं । यथा पाण्डवपुराण पर्व ७ / ८३.८६ ८८/८९ / ९२ / ९८१०२ १०३ १०७/११३ पां.च. [दे.प्र.] सर्ग २१५८-६१/१६४ १६६ १७७ १८८/२०५/२०९२२५/२३८ यहां देवप्रभसूरिके पाण्डवचरित्रमें भगवद्गीताका अनुसरण कर यह कहा गया है कि जिस समय दोनों ओरकी सेनायें युद्धार्थ कुरुक्षेत्रमें आकर उपस्थित हुई उस समय अर्जुनने कृष्णसे शत्रुसेनाके प्रत्येक योद्धाका परिचय पूछा । तदनुसार कृष्णकेद्वारा घोडों व ध्वजाका निर्देश करते हुए शत्रुपक्षके प्रत्येक योद्धाका परिचय दिये जानेपर अर्जुन खिन्न होकर रथके मध्यमें बैठ गया और बोला कि ' हे कृष्ण ! मैं राज्य-लक्ष्मीके लिये भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य और दुर्योधन आदि बन्धुओंका घात कर पापका भागी नहीं होना चाहता। यदि वे हमारा अपकार करते हैं तो भलेही करें, इससे कुछ बन्धुता थोडेही नष्ट हो जावेगी आदि।' तब कृष्णने उसे क्षात्रधर्मका रहस्य समझाकर युद्धकेलिये उत्साहित किया । विशेषतः यहां इतनी है भगवद्गीतामें जहां कृष्णने अर्जुनको आध्यात्मिक तत्त्वकी ओर लेजाकर युद्धार्थ प्रोत्साहित किया, वहां दे. प्र. पाण्डवचरित्रमें १ श्रीमद्भगवद्गीता १, २१-४७, दे. प्र. पां. च. १३; ३-२३. २ श्रीमद्भगवद्गीता २, १०-७२, दे. प्र. पां. च. १३, २४-३४. ३ शु. चं. पां. पु. १९, १७२-१७६. ३ यथा-नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥१६ अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः । अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ! ॥ १८ य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् । उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥१९ न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यःशाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ २० ॥ भगवद्गीता (अ. २) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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