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________________ ८२ पाण्डव पुराणम् एहि यावः पुरं यावत्प्रयात्यस्तं दिवाकरः । इत्युक्त्वा तां विमाने स संरोप्यागान्नभस्तले || रूपं सोऽदर्शयद्गत्वान्तरे कामी सुखी निजम् । कोऽयं किंरूपमालोक्य विह्वला सेति वाजनि ॥ निवृत्तो भूपतिर्मायामृगे याते स्थितोऽपराम् । तदुक्तवरवेतालीं सुतारारूपधारिणीम् ॥१४५ दष्टा कुर्कुटनागेन स्थिताहमितिभाषिणीम् । म्रियमाणामिवालोक्य व्याकुलात्मा नृपोऽजनि ॥ मन्त्रौषधमणिप्रायैर्ज्ञातवान्विषमं विषम् । मर्तु तया समं भूपश्चितौ तां समरोपयत् ॥ १४७ सूर्यकान्तसमुद्भूतवह्निनाज्वालयत्तकाम् । तत्र झम्पां प्रकर्तुं स आरुरोह समाकुलः ।। १४८ तावता खचरौ क्षिप्रं खादायातौ नृपान्तिकम् । विच्छेदिनीं परां विद्यां मुक्त्वा चिच्छेद तां खगः।। वामपादेन चैकेन ताडिता स्थातुमक्षमा । स्वरूपं प्रकटीकृत्य सागमत्क्वाप्यदृश्यताम् ।। १५० एतच्छ्रीविजयो दृष्ट्वा विस्मयव्याप्तमानसः । किमेतत्खेचरौ प्राह प्राहतुस्तौ च तत्कथाम् ।। १५१ भरते खचरावासे दक्षिणश्रेणिवासिनि । ज्योतिःप्रभे पुरे भूमी संभिन्नोऽहं मम प्रिया।। १५२ सुप्रिया सर्वकल्याणी सुतो दीपशिखः सुखी । रथनूपुरनाथेन गत्वा मत्स्वामिनाप्यहम् ।। लाओ । उस हरिणको लानेके लिये राजाकै जानेपर अशनिवोष श्रीविजयका रूप धारण कर उसके आगे खडा होगया । ' हे प्रिये, चलो सूर्य अस्तको जारहा है । हम दोनों अपने नगरको चलें । ' ऐसा बोलकर उसको विमान में बैठाकर वह आकाशमें चला गया ।। १३८ - १४३ ॥ उस कामी सुखी विद्याधरने कुछ अन्तर चलकर अपना रूप दिखाया । उसे देखकर " यह कौन है यह रूप किसका है " ऐसे विचारसे वह दुःखित होकर शोक करने लगी ।। १४४ ॥ उधर वह मायामृग दूर निकल जानेपर राजा लौट आया तो सुताराके स्थानपर बेतालीविद्या सुताराका रूप धारण कर बैठी हुई उसको दीख पडी । ' हे नाथ मुझे कुर्कुटनागने दंश किया है ' ऐसा कह कर उसने मरने के समय के रूपके समान रूप दिखाया । राजा व्याकुल होगया । मंत्र, औषध, और माण आदिसँ भी यह विष दूर नहीं होनेवाला है ऐसा जानकर राजाने उसके साथ मरने का निश्चय किया और उसको चितापर बैठाया। सूर्यकान्त मणिसे उत्पन्न हुई अग्निके द्वारा उसे प्रज्वलित किया और उसमें कूदने के लिये वह व्याकुल होकर चढ़ गया || १४५ - १९४८ || इतने में बड़ी जल्दी से दो विद्याधर आकाशसे राजाके पास आगये । विच्छेदिनी नामक विद्याको भेजकर उस famrata aarat विद्याको छिन्न किया और वाँये पावसे ताडन किया तब वह वहां रहने में असमर्थ होकर अपना स्वरूप प्रकट कर कहीं अदृश्य होगई || १४९ - १५० ।। इस दृश्यको देखकर श्रीविजयका अन्तःकरण विस्मित हुआ । उसने विद्याधरों को पूछा कि यह क्या है । तत्र वे उसकी कथा कहने लगे ॥ १५१ ॥ [ सुताराहरण-वार्ता कथन ] इस भरतक्षेत्र में विजयार्द्ध पर्वतकी दक्षिणश्रेणी में ज्योतिप्रभा नगरी है । उसका स्वामी मैं संभिन्न नामका विद्याधर राजा हूं । मेरी प्रियपत्नीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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