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चतुर्थ पर्व सर्वे शशंसुस्तढाद्धं युक्तां युक्तिविशारदाः । मन्त्रिणः प्रतिबिम्ब तु कृत्वा भोपं नृपासने ॥ निवेश्य सकला नेमुः पोदनाधीशसद्धिया। नरेशोऽस्थात्परित्यज्य राज्यं प्रारब्धपूजनः॥१३२ ददद्दानं जिनागारे शान्तिकर्मकृतोत्सवः । सप्तमेऽह्नि पपाताशु वजं बिम्बस्य मूर्धनि ॥१३३ तस्मिन्नुपद्रवे नष्टे सहर्षाः पुरवासिनः । नानानकैर्नटीनाट्यैनराश्चकुर्महोत्सवम् ॥ १३४ नैमित्तिकाय ग्रामाणां पमिनीखेटसंयुतम् । शतं प्रपूज्य वखाद्यैर्ददुप्तिमहोत्सवाः ॥१३५ शातकुम्भमयैः कुम्भैरभिषिच्य महीपतिम् । समारोप्यासनेमात्याः सुराज्ये प्रत्यतिष्ठिपन् । एकंदा मातुरादाय विद्यामाकाशगामिनीम् । सुतारया समं ज्योतिर्वनं रन्तुं जगाम सः॥१३७ यथेष्टमिष्टसंश्लिष्टश्चिक्रीड कान्तया नृपः । अथो चमरचश्चाख्यपुर्यामिन्द्राशनिः पतिः॥१३८ आसुरीशः सुतस्तस्याशनिघोषः सुघोषवान् । संसाध्य भ्रामरी विद्यां पुरं गच्छन्यदृच्छया ॥ सुतारां लक्षणैलेक्ष्यां वीक्ष्य तां लातुमुद्यतः । मायामृगं महीशस्य रन्तुं स प्राहिणोच्छलात् ॥ तं वीक्ष्य सुतरां तारा नृत्यन्तं संजगी पतिम् । रमण त्वं मृगं रम्यं रमणाय समानय।।१४१ तदा भूपे मृगं लातुं प्रयात्यशनिघोषकः । नृपरूपं समादाय जगौ तस्याः पुरःस्थितः॥१४२
मंत्रियोंने राजाका पुतला बनाकर सिंहासनपर स्थापन कर दिया और संब पोदनाधीशके संकल्पसे उसे नमस्कार करने लगे। राजाने राज्यत्याग कर जिनमंदिरमें जिनपूजनका प्रारंभ किया । वह दान देने लगा। शांतिकर्मके लिये उसने उत्सव किया। शीघ्रही सातवे दिन उस पुतलेके मस्तकपर वज्रपात हुआ ॥ १२९-१३३ ॥ वह उपसर्ग नष्ट होनेसे नगरवासी लोगोंका आनन्द हुआ । अनेक नगारों आदि वाद्योंकी ध्वनि और अनेक नटीयोंके नृत्योंसे लोगोंने खूब उत्सव मनाया ॥ १३४ ॥ बडे महोत्सबके साथ युवराजादिकोंने वस्त्रादिकोंसे आदर कर नैमित्तिकको पमिनीग्वेटसहित सौ गांव दिये ॥ १३५ ॥
अशनिघोषके द्वारा सुताराका हरण ] संकटका उपशम होनेपर सामन्तादिकोंने राजा श्रीविजयको आसनपर बिठाकर सुवर्णकुंभोंसे उसका अभिषेक किया तथा पुन: राज्यपर बैठाया ॥ १३६ ॥ किसी समय अपनी मातासे आकाशगामिनी विद्या लेकर राजा सुताराके साथ ज्योतिर्वनमें क्रीडा करनेके लिये गया ॥ १३७ ॥ इष्टभोगोंसे युक्त राजा अपनी स्त्रीके साथ यथेष्ट क्रीडा करने लगा। चमरचश्चा नगरीमें इन्द्राशनि नामक राजा राज्य करता था, उसकी पत्नीका नाम आसुरी था, और दोनोंको मधुरभाषी अशनिघोष नामका पुत्र था । किसी समय वह अशनिघोष विद्याधर भ्रामरी विद्या सिद्ध करके स्वेच्छासे अपने शहरको जा रहा था। उत्तम लक्षणोंवाली सुताराको देखकर उसको हरण करनेके लिये उद्युक्त हुआ । उसने कपटसे एक मायामृग श्रीविजयके साथ खेलनेके लिये भेज दिया । उस हरिणको सुंदर नृत्य करते हुए सुताराने देखा और अपने पतिको कहने लगी, हे प्रिय इस सुंदर हरिणको क्रीडा करनेके लिये यहां . .पां. ११
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