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________________ .६६ पाण्डव पुराणम् इहागताविति व्यक्तं सा प्रोवाच सुलोचना । जयोऽतुषत्प्रियावाक्यात्कः स्त्रीवाचा न तुष्यति ।। एवं सुखेन भुञ्जानौ भोगं कालं विनिन्यतुः । विद्याधरभवावाप्तन (ना विद्यासमाश्रितौ ।। २५९ विद्याप्रभावतस्तौ द्वौ मेरौ च कुलपर्वते । विहरन्तौ सुभेजाते सातं संसारसारजम् ॥ २६० कैलासशैलजे रम्ये वने मेघस्वरो गतः । तदा सुलोचनाभ्यर्णादसौ किंचिदपासरत् ।। २६१ तदेन्द्रेण सभामध्ये जयस्य शीलशंसनम् । तत्प्रियायाश्च संचक्रे तच्छुश्राव रविप्रभः ॥२६२ असहिष्णुः सुरो देवीं काञ्चनाख्यामजीगमत् । सा तं प्राप्य समाचख्यौ क्षेत्रेऽस्मिन्भारते वरे ॥ विजयाद्धोत्तर श्रेण्यां पुरे रत्नपुरेऽप्यभूत् । राजा पिङ्गलगन्धारो भामिनी तस्य सुप्रभा || २६४ विद्युत्प्रभा तयोः पुत्री नमेर्भार्याभवं पुनः । त्वां मेरुनन्दने वीक्ष्य क्रीडन्तं सोत्सुकाप्यहम् ॥२६५ ततः प्रभृति मच्चित्ते त्वमभूर्लिखिताकृतिः । दैवतस्त्वं च दृष्टोऽसि मां धारय सुखाप्तये || २६६ तद्दुष्टचेष्टितं दृष्ट्वा मा मंस्थाः पापमीदृशम् । पराङ्गनापरित्यागवतं स्वीकृतवानहम् || २६७ निर्भत्सता महीशेन साभूत्कोपनकम्पिता । उपात्तराक्षसीवेषा तं समुद्धृत्य गत्वरी ॥२६८ पुष्पावचयसंसक्तसुलोचनाभितर्जिता । भीता सा काञ्चना तस्याः शीलमाहात्म्यतो गता ।। २६९ दम्पती मेरुपर्वतपर तथा कुलपर्वतपर विहार करते हुए संसारका सारभूत सुख भोगने लगे || २५३ - २६० ॥ किसी समय मेघस्वर अर्थात् जयकुमार कैलासपर्वतके रम्य वनमें गया था, तब सुलोचना के पाससे वह किंचित् दूर हुआ उस समय इन्द्रने सभामें जय और उसकी पत्नी सुलोचनाके शीलकी प्रशंसा की । रविप्रभदेवने वह सुनी । परंतु वह असहिष्णु होने से उसने कांचना नामकी देवी जयकुमारके पास भेजी । वह उसके पास जाकर इस प्रकार कहने लगी । इस उत्तम भरत क्षेत्र में विजयार्द्धपर्वतकी अत्तर श्रेणीमें रत्नपुरनगरका पिंगलगंधार नामका राजा है । उसकी पत्नीका नाम सुप्रभा है। उन दोनोंको मैं विद्युत्प्रभा नामकी पुत्री हुई हूं और मेरा नाम विद्याधर के साथ विवाह हुआ है । किसी समय मेरुके नंदनवन में आपको क्रीडा करते हुए मैंने देखा । आपके विषय में मैं उत्कंठित भी हुई और तबसे मेरे मनमें चित्रके समान आपकी आकृति लिखी गई है । दैवयोगसे आज आपका दर्शन होगया । हे नाथ, आप सुखके लिये मेरा स्वीकार करें ।। २६१ - २६६ ॥ उस देवकी वह दुष्ट चेटा देखकर इस तरहका पाप विचार तू मनसे निकाल दे । मैंने परस्त्रीत्यागवत धारण किया है । ऐसा कहकर राजा जयकुमारने उसकी निर्भर्त्सना की । तब वह देवता कोपसे कांपने लगी । उसने राक्षसी वेष धारण किया और उसको उठाकर लेजाने लगी। उस समय सुलोचना पुष्प तोड रही थी, उसने जब राक्षसको डाँट लगायी तब उसके शीलके माहात्म्यसे डरकर वह कांचना देवी वहांसे भाग कर अदृश्य होगई । योग्यही है कि देव शीलवतीसे भय को प्राप्त होते हैं। वह कांचनादेवी अपने स्वामीके पास जाकर उसको नमस्कार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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