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तृतीयं पर्व अदृश्यतां सुराः शीलवत्या यान्ति भयं ननु । गत्वा सा स्वामिनं नत्वा चक्रे तच्छीलशंसनम् ॥ रविप्रभः समागत्य विस्मयात्तावुभौ नतः। समाख्याय खवृत्तान्तं युवाभ्यां क्षम्यतामिति ॥२७१ संपूज्य वस्त्रसद्रत्नैः स्वर्गलोकं समासदत् । विहृत्य कान्तयारण्ये पुरं निवृत्य सोगमत् ।।२७२ चभूव नमितानेकनृपवृन्दो महोदयः। अन्यदा स समुत्पन्नबोधिर्मेघस्वरो नृपः ॥२७३ आदिनाथं समासाद्य वन्दित्वां श्रुतवान्वृषम् । विरक्तो भवभोगेष्वनन्तवीर्य सुतं धृतम् ॥२७४ शिवंकरमहादेव्या अभ्यषिञ्चनिजे पदे । सर्वसंगं परित्यज्य संयमं बहुभिर्नृपैः ॥२७५ अग्रहीसिद्धसप्तर्द्धिश्चतुर्तानविराजितः । अभूद्गणधरो भर्तुरेकसप्ततिसंख्यकः ॥२७६ सुलोचना वियोगार्ता विरक्ता च सुभद्रया । चक्रिपत्न्या समं ब्रामीसमीपे व्रतमग्रहीत् ।।२७७ कृत्वा तपो विमानेऽनुत्तरेऽभूत्साच्युतेऽमरः। ततः श्रीवृषभश्रेष्ठो विहत्य निवृतोऽखिलान्॥२७८ धर्मोपदेशदानेन सिञ्चन्भव्यजनावलीम् । कैलासशिखरं प्राप्य चतुर्दशदिनानि वै ॥२७९ मुक्तसंगसमायोगो निरस्ताखिलयोगकः । माघकृष्णचतुर्दश्यां भगवान्भास्करोदये ॥२८० पल्यङ्कासनसंरूढप्राअखः क्षिप्तकल्मषः । शरीरत्रितयापाये जगाम पदमव्ययम् ॥२८१
कर जयकुमारके शीलकी प्रशंसा करने लगी ॥ २६७-२७१ ॥ रविप्रभदेव आश्चर्यचकित होकर उनके पास आया और उसने दोनों को नमस्कार किया । तथा इन्द्र ने सभामें कहा हुआ सब वृत्त उसने जयकुमारको कह दिया । अपनी भी कथा कहकर उनकी उसने क्षमायाचना की । वस्त्र और रत्नोंसे उनकी पूजा कर वह स्वर्गको गया । इधर जयकुमारभी वनमें अपनी स्त्रीके साथ क्रीडा कर वहांसे लौटकर अपने नगरको पत्नीसहित चला गया ॥ २७२ ॥ जयकुमार दीक्षा लेकर वृषभनाथका गणधर हुआ । जिसको अनेक नृपसमूह नमस्कार करते हैं, जो महावैभवशाली है ऐसा मेघस्वर ( जयकुमार ) राजा एक समय संसारविरक्त हुआ । आदीश्वरके पास जाकर उनको बंदनाकर उसने धर्मोपदेश सुना । भवभोगोंमें विरक्त होकर शिवंकर महादेवीके पुत्र अनंतवीर्यको अपने पदपर उसने अभिषिक्त किया । सर्व परिग्रहोंको त्यागकर अनेक नपोंके साथ उसने संयम धारण किया । उसको सात ऋद्रियां सिद्ध हो गयीं । चार ज्ञानोंसे वह विराजमान होगया और वह भगवंतका इकहत्तरवा गणधर बन गया ॥ २७३-२७६ ॥ पतिवियोगसे दुःखी सुलोचनाने विरक्त होकर चक्रवर्ती भरतकी पत्नी सुभद्राके साथ ब्राह्मी आर्यिकाके साप दीक्षा ग्रहण की । तपश्चरण करके अच्युत स्वर्गके अनुत्तर विमानमें वह देव हुई ॥२७७-२७८॥ तदनन्तर श्रीवृषभ प्रभुने अनेक देशोंमें विहार किया । धर्मोपदेशके दानसे भव्य जनोंको सिंचित करके भगवान् कैलास शिखरपर आये । वहां चौदह दिनतक संपूर्ण परिग्रहोंका संबंध नष्ट होनेमे वे संपूर्ण योगोंसे रहित होगये । माघकृष्णचतुर्दशीके दिन सूर्योदयके समय भगवान्ने पल्यंकासनसे बैठकर, पूर्व दिशाके सम्मुख मुख कर, संपूर्ण अघातिकर्मोको नष्ट कर,
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