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पाण्डवपुराणम् लोकयन्तौ तको लोकान्स्वर्गिणी भीमयोगिनम् । वीक्ष्य प्राष्टां च तौ धर्म शर्मधर्मार्थसाधनम् ।। धर्मो जीवदया धर्मः सत्यवाक् संयमस्थितिः। धर्मस्तद्वचनं श्रुत्वा मुनिरित्येवमब्रवीत् ॥२४० हेतुना केन सदीक्षा गृहीता वद वेदवित् । सोज्वोचत्पुण्डरीकिण्यां भीमोऽहं दुर्गते कुले ।। एकदा मुनितो मत्वा वृष मूलगुणाष्टकम् । व्रतं चाग्रहिषं पित्रे कथितं तन्मयाखिलम् ।।२४२ श्रुत्वा पिता क्रुधाक्रान्तो बोधितो बहुहेतुना । दिदीक्षे च मया क्षिप्रं जातजातिस्मरात्मना । अहं पूर्वभवेऽभूवं भवदेवो वणिक्सुतः । बद्धवैरो निहन्तारं रतिवेगसुकान्तयोः ॥२४४ पारापतभवेऽप्याखुभुजा तयुगलं हतम् । विद्युच्चौरत्वमासाद्य हतौ तौ खगदम्पती ॥२४५ तदयोदयविनात्मा निरये दुःखपूरिते । अपतं तन्महादुःखं पापारिक किं न जायते ।।२४६ ततोऽहं निर्गतो भीमो भीमोऽभूवं भवं भ्रमन् । श्रुत्वा सुरौ कथां तस्य प्रबुद्धौ शुद्धमानसा ।। गतौ तौ त्रिदशावासे सातसागरसाधकौ । देवदेवीसमासंगरङ्गगाढाङ्गसंगतौ ॥२४८
[ भीममुनि अपने भवोंका वर्णन करते हैं - लोगोंको देखते हुए उन दो देवोंने भीमयोगीको देखकर सुख, धर्म और अर्थका साधनभूत धर्मका स्वरूप पूछा । तब उनके प्रश्नको सुनकर मुनिने ' जीवोंपर दया करना धर्म है । सत्यभाषण बोलना धर्म है। संयमपालन धर्म ह' इत्यादि धर्मका स्वरूप कहा । हे तत्त्वज्ञानी आपने किस कारणसे यह हितकर दीक्षा ली है ?" इस तरह देवाके पूछने पर मुनिने कहा । " पुण्डरीकिणी नगरीमें मेरा दरिद्रकुलमें जन्म हुआ । किसी समय मुनिसे धर्मका स्वरूप जानकर आठ मूलगुण और अहिंसादि व्रत ग्रहण किये, और पिताजीसे यह सब निवेदन किया । सुनकर पिताजी क्रोधाविष्ट हुए तब मैंने अनेक हेतुओंसे समझाया । मुझे जातिस्मरण हुआ, और मैंने शीघ्रही दीक्षा धारण की। मैं पूर्वभवमें भवदेव नामक वैश्यपुत्र हुआ था । पूर्वभवसे वैर बांधकर मैंने रतिवेगा और सुकान्तका नाश किया। जब वे दोनों कबूतरके भवमें थे तब मार्जार होकर उन दोनोंको मैंने भक्षण किया । तदनंतर विद्यच्चार होकर उन विद्याधर दंपतीको मैंने मार डाला । उनके पुण्योदयमें मैं विघ्नकरनेवाला हुआ हूं। और उससे मैं दुःखोंसे भरे हुए नरकमें पडा था । योग्यही है, कि पापसे कोनसा कोनसा महादुःख जीवको उत्पन्न नहीं होता है ? तदनंतर संसारमें भ्रमण करता हुआ भयंकर वृत्तिवाला मैं भीम नामक मनुष्य बन गया " । इस प्रकार उस भीममुनिकी कथा सुनकर वे सुखसागरक साधक शुद्ध अन्तःकरणवाले दोनों देव सावध हो गये और अपने निवासस्थानकोस्वर्गको चले गये ॥ २३९-२४७ ॥ जिनकी बुद्धि सातों भयोंसे रहित हुई है, संसारभ्रमणसे जिनकी बुद्धि भययुक्त हुई है, ऐसे भव्य भीममुनि पुण्डरीकिणी नगरीमें मैत्रीप्रमोदादिक भावनाओंको भाते हुए अधःकरणके परिणामोंसे विशुद्धि प्राप्त करके अपूर्वकरणके परिणामोंमें उद्युक्त हुए । उन परिणामोंके अनंतर वे अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंसे अपने पापोंका नाश करने
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