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________________ तृतीयं पर्व तन्मात्रा गुणवत्यास्तु दीक्षां प्राप्ता प्रभावती । तन्वती तनुसंतापं तपसा श्रुतचेतसा ॥२२७ बिहरन्तौ तको प्राप्तौ पुरीं च पुण्डरीकिणीम् । श्रेष्ठिवध्वा प्रभावत्यार्यिकाथ ददृशे क्वचित् ।।२२८ इयं केति तदा पृष्टा गणिनी प्रियदत्तया । मम चित्ते परा प्रीतिरस्या उपरि तत्कथम् ।।२२९ किं न स्मरसि कापोतयुग तत्र भवद्हे । रतिषेणाहमित्येतच्छ्रत्वा सा विस्मितावदत्।।२३० कासौ रतिवरोऽधेति सोऽपि विद्याधरेश्वरः। मुनिर्हिरण्यवर्मात्रागतोऽस्तीति च सावदत् ॥२३१ प्रियदत्ता मुनि नत्वा प्रभावत्युपदेशतः । अदीक्षत क्षमापन्ना विरक्तेः फलमीदृशम् ।।२३२ मुनिर्हिरण्यवर्माथ कदाचिचितिभूतले । अहानि सप्त संगीर्य समस्थात्प्रतिमास्थितः ॥२३३ दास्याश्च प्रियदत्तायास्तद्यतेः प्राक्तनं भवम् । स माजोरचरोऽोषीविद्युच्चौरः प्रदुष्टधीः।।२३४ विभङ्गावधिना ज्ञात्वा प्रतिमायोगमास्थितम् । तं च प्रभावतीं नीत्वा चितिकायां स चाक्षिपत् ।। तौ तत्रानिसमुत्पन्नान्सोढा शुद्धौ परीषहान् । हित्वा प्राणान्गतौ नाकं विकस्वरमु खाम्बुजौ ॥ स्वर्णवर्माथ तं ज्ञात्वा विद्युच्चरस्य मारणम् । करिष्यामीति तज्ज्ञात्वावधिबोधेन तौ सुरौ ॥ रूपं संयमिनोलात्वागत्याबोधयतां सुतम् । प्रदायाभरणं तस्मै दिव्यरूपौ गतौ दिवि ॥२३८ और प्रभावती आर्यिका दोनों पुण्डरीकिणी नगरको आगये । वहां किसी स्थानमें . कुबेरमित्रकी पत्नी प्रियदत्ताने प्रभावती आर्यिकाको देखा और प्रधान आर्यिकासे पूछा, कि यह कौन है ? मेरे मन में इसके ऊपर अतिशय स्नेह क्यों उत्पन्न हुआ है ? तुम्हारे घरमें जो कबूतरोंकी जोडी थी क्या तुम उसे भूठ गई ! उसमेंसे मैं रतिषेणा नामक कबूतरी थी। यह वृत्त सुनकर प्रियदत्ता आश्चर्यसे पूछने लगी कि वह रतिवर कबूतर आज कहां है ? तब प्रभावती आर्यिकाने कहा, वह हिरण्यवर्मा विद्याधरेश्वर होकर अब मुनि होगये हैं और वे यहां आये हैं' ॥ २२४-२३० ॥ मुंनि हिरण्यवर्माको नमस्कार कर प्रभावती आर्यिकाके उपदेशसे प्रियदत्ता क्षमा धारण करनेवाली आर्यिका होगयी। योग्यही है, कि वैराग्यका फल ऐसाही होता है । किसी समय मुनि हिरण्यवर्मा श्मशानमें सात दिनोंकी प्रतिज्ञा करके प्रतिमायोगसे खडे होगये । पूर्वजन्ममें जो मार्जार था, उस दुष्टबुद्धि विद्युचोरने प्रियदत्ताकी दासीसे मुनि हिरण्यवर्माके पूर्वभत्र सुने । प्रतिमायोगमें वे मुनिराज स्थित हैं इस बातको विभंगावधिसे जानकर उनको और प्रभावती आर्यिकाको उठाकर चितामें फेंक दिया। पवित्र आर्यिका और मुनि दोनों अग्निसे उत्पन्न हुए परीषहोंको सहकर प्रफुल्ल मुखकमलको धारण करते हुए प्राणोंको छोडकर स्वर्गको गये ॥२३१-२३६ ॥ स्वर्णवर्माने मेरे माता-पिताको विद्युञ्चरने मार डाला यह वृत्त जानकर उसको मारनेका निश्चय किया । इस बातको अवधिज्ञानसे जानकर वे देव और देवी .मुनि और आर्यिकाका रूप धारण करके अपने पुत्र के पास जाकर उन्होंने उसे उपदेश दिया तथा उसको वस्त्राभूषण देकर दिव्यरूपवाले ये देव स्वर्गलोकको गये ।। २३७-२३८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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