________________
६२
पाण्डवपुराणम् पुनः स्वयंवरारम्भे रभराभस्यरञ्जिता । सिद्धकूटजिनागारात्पुरो मालामपातयत्।।२१७ त्रिः परीत्य महामेरोरस्पृष्टां भूतलं खगाः । ग्रहीतुमक्षमास्तां हि त्रपायुक्ता गृहं ययुः ॥२१८ ततो हिरण्यवर्मागाद्गतिसंगरसंगवित् । निर्जिता तेन तत्कण्ठे मालामारोपयच्च सा ॥२१९ विवाहविधिना कन्यामुपयेमे खगात्मजः । सिद्धकूटालये प्राप्तकल्याणपरमोत्सवः ॥२२० काले गच्छति कस्मिंश्चित्कपोतद्वयवीक्षणात् । ज्ञातप्राग्भवसंबन्धा विरक्ताभूत्प्रभावती।।२२१ प्रभावत्या परिपृष्टः परमौषधिचारणः । स्वपूर्वभवसंबन्धं श्रुत्वैतदाह योगिराद् ।।२२२ वधूवरादिसंबन्धं श्रुत्वा श्रीमुनिपुङ्गवात् । परस्परमहास्नेहावभूतां तो खगीखगौ ।।२२३ अथादित्यगतिक्ष्यि विशरारं सुवारिदम् । राज्ये हिरण्यवर्माणं स्थापयित्वाग्रहीत्तपः ।।२२४ राज्यं प्राज्यं प्रकुर्वाणः खेचरश्चरणोज्ज्वलः । कुतश्चिद्विरतः स्वर्णवर्मणेऽदानिजं पदम् ॥२२५ ततोऽवतीर्य भूभाग श्रीपुरं प्राप्य सद्गुरोः । श्रीपालासंयम लेभे विलुब्धो बुधसेवितः।।२२६
स्पष्ट उत्तर दिया, कि जो मुझे गतियुद्धमें जीतेगा, उसके गलेमें मैं माला डालूंगी । पुनः स्वयंवरके आरंभमें वेगकी शीघ्रतामें अनुरक्त कन्याने सिद्धकूट जिनमंदिरके आगे पुष्पमाला छोड दी । महामेरूको तीन प्रदक्षिणा देकर भूतलको जिसने स्पर्श नहीं किया है ऐसी पुष्पमालाको पकडने में असमर्थ अतएव लज्जायुक्त हुए वे विद्याधर अपने स्थानको चले गये । तदनंतर गतियुद्धकी संगतिको जाननेवाले हिरण्यवर्माने प्रभावतीको जीता। तब उसने उसके गलेमें पुष्पमाला डाली । आदित्यगतिविद्याधर-पुत्र हिरण्यवर्माने कन्याके साथ सिद्धकूट जिनमंदिरमें लाभदायक उत्कृष्ट उत्सबके साथ विधिपूर्वक विवाह किया ॥ २१६-२२० ॥ कुछ काल बीतनेपर कबूतरोंका जोडा देखनेसे पूर्वभवका संबंध जानकर प्रभावती विरक्त होगई। उसने उत्तम औषधि ऋद्धिधारक चारणमुनीश्वरसे अपने पूर्वभवका संबंध पूछा । मुनिराजने वह कहा। मुनिराजसे वधूवर आदिक संबंध सुनकर प्रभावती और हिरण्यवर्मामें आपसमें गाढ स्नेह उत्पन्न हुआ॥२२१-२२३॥ किसी समय नष्ट होते हुए सुंदर मेघको देखकर आदित्यगतिको वैराग्य उत्पन्न हुआ । राज्यपद हिरण्यवर्माको देकर उसने दीक्षा ग्रहण की। सदाचारसे उज्ज्वल हिरण्यवर्मा उत्तम राज्यका रक्षण करने लगा। किसी कारणसे विरक्त होकर उसने स्वर्णवर्मा नामक पुत्रको अपना पद-राज्य दिया । तदनंतर विद्वज्जन-सेवित निस्स्पृह हिरण्यवर्माने विजयासे उतरकर भूभागमें श्रीपुरनगरमें सद्गुरु श्रीपाठ मुनिसे संयम धारण किया । हिरण्यवर्म मुनीश्वरकी माता जो शशिप्रभा आर्यिका उसके सन्निध रहनेवाली गुणवती आर्यिकासे प्रभावतीने दीक्षा ग्रहण की। श्रुतज्ञानमें अपना मन संलग्न कर तपके द्वारा प्रभावतीने अपना शरीर कृश किया । विहार करते करते वे हिरण्यवर्मामुनि
१ स प व ग नास्त्यसौ श्लोकः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org