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पाण्डवपुराणम् व्यापारार्थमटन्देशान्तरे स खजिघृक्षुकः । श्रीदत्तेनेति संप्रोक्तो विवाहविधये स्फुटम् ॥१९३ अटाट्यसे वणिज्यायै विवाहस्य च का गतिः । द्वादशाब्दावधिं कृत्वेति स देशान्तरं ययौ ।। तन्मर्यादात्यये तस्याः पितृभ्यां परमोत्सवैः। सुकान्ताय समादायि रतिवेगा रतिप्रदा ॥१९५ देशान्तरात्समागत्य तद्वार्वाश्रवणादृशम् । दुर्मुखे कुपिते भीत्वा तदानीं तद्वधूवरम् ॥१९६ वने धान्यकमालाख्ये प्राप्य सर्पसरोवरम् । स्थितस्य शक्तिषेणस्य वजित्वा शरणं ययौ॥१९७ दुमुखोऽनुगतस्तत्र बद्धवैरो वधूवरम् । हन्तुं श्रीशक्तिषणस्य नृपस्य निवृतो भयात् ॥१९८ शक्तिपेणं ददद्दानं दृष्ट्वा संभाव्य भावनाम् । वधूवरं सुखेनास्थाचारणाय सुभावतः ॥१९९ कदाचिद्भवदेवेन निदग्धं च वधूवरम् । दुमुखाख्यः खलो बस्तः कदाचित्तन्महाभटै।।२०० अथात्र पुण्डरीकिण्यां प्रजापालो महीपतिः । श्रेष्ठी कुबेरमित्राख्यस्तस्यासीद्राजवल्लभः ॥२०१ द्वात्रिंशद्धनवत्याद्याः प्रियास्तस्याभवन्वरः । तद्नेहेऽभूद्रतिवरः कपोतस्तु सुकान्तकः ।। २०२
हो गयी थी ॥ १८७-१९२ ॥ धनको चाहनेवाला भवदेव व्यापारके लिये देशान्तरको जा रहा था। उस समय श्रीदत्तने स्पष्टरूपसे विवाहकी बात छेडी । " हे भवदेव, हमेशा व्यापारके लिये तूं दौडता है ऐसी अवस्थामें विवाहका क्या हाल होगा? तब भवदेवने बारा वर्षोंकी मर्यादा की और वह देशान्तरको चला गया ॥ १९३-१९४ ॥ बारा वोंकी मर्यादा समाप्त होनेपर रतिवेगाके मातापिताने बडे उत्सवसे सुकान्तको सुख देनेवाली रतिवेगा दी ॥ १९५ ।। देशान्तरसे आकर विवाहकी वार्ता सुनकर दुर्मुख अतिशय कुपित हुआ। तब सुकान्त और रतिवेगा उसके भयसे भाग गये और धान्यकमाल नामक वनमें सर्पसरोवरके पास रहे हुए शक्तिषणका आश्रय लिया । जिसने वैर बांधा है ऐसा वह भवदेव उस वधूवरको मारनेके लिये उनके पीछे गया । परंतु श्रीशक्तिषेण राजाके भयसे वह वहांसे लौट आया। चारणमुनिको दान देते हुए शक्तिघेणको देखकर शुभपरिणाम होनेसे शुभभावोंकी भावना करते हुए वे वधूवर सुखसे रहने लगे । किसी समय भवदेवने उस वधूवरको जला डाला। तब शक्तिपेण राजाके महापराक्रमी वीरोंने उसको मार डाला ॥ १९६-२०० ।। पुंडरीकिणी नगरमें प्रजापाल राजा राज्य करता था। उसका कुबेरमित्र श्रेष्ठीपर अतिशय स्नेह था। श्रेष्ठीको धनवती आदिक बत्तीस सुन्दर स्त्रियां थी । श्रेष्ठीके घर में सुकांत रतिवर नामक कबूतर होकर रहा था । तथा पूर्वजन्ममें जो रतिवेगा थी वह रतिषेणा नामक कबूतरी हुई । ये दोनों श्रेष्ठीके घरमें ही रहते थे। क्योंकि वहांही उनकी उत्पत्ति हुई थी। वहां तंडुलादिक भक्षण करते हुए वे दोनों संसारको देनेवाले नानाप्रकारके सुख भोगते थे। किसी समय कुबेरमित्र श्रेष्ठीके वरमें दो चारणमुनि आगये । उनको आये हुए देखकर श्रेष्ठी और श्रेष्ठिनी दोनोंने आनंदितहृदयसे उन्हें भक्तिसे ठहराया । आहारके लिये जब वे उद्युक्त हुए तब कपोतोंकी जोडी उन दो जंघाचारणमुनिओंको देखकर
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