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तृतीयं पर्व प्रासादमेकदारुह्य गच्छन्तौ खगदम्पती । दृष्ट्वा प्रभावती मेऽहो केति जल्पन्मुमूर्छ सः।।१८२ तथा कलरवद्वन्द्वं वीक्ष्य जातिस्मरान्विता । हो मे रतिवरेत्युक्त्वा सापि मूर्छामुपागमत्॥१८३ हिमचन्दनसमिश्रवास्तिन्मूर्च्छनासुखम् । अवारयत्परीवारस्तमो वा रत्नदीधितिः ॥१८४ प्रबुद्धौ तौ स्मयाक्रान्तौ दृष्ट्वा लोंकान्सुविह्वलान् । विदित्वा पूर्वजन्मानि सोऽभाणीत्स्वप्रियां प्रति।। प्रिये जन्मान्तरावाप्तं वृत्तान्तं विश्वमावयोः । व्यावयेदमदः शान्तं कुरु कौतुकसंगतम्।।१८६ साज्ञापिता प्रियेणेतिं बभाषे कलभाषिणी । इह जम्बूमति द्वीपे पुष्कलावत्यभिख्यया ॥१८७ प्राग्विदेहे श्रुते देशे मृगालादिवती पुरी । सुकेतुस्तत्र भूपालो वैश्येशो रतिकर्मकः ॥ १८८ कनकश्रीः प्रिया तस्य भवदेवः सुतस्तयोः । श्रीदत्तचापरस्तत्र वणिक् तस्यातिवल्लभा ॥१८९ विमलश्रीस्तयोः ख्याता रतिवेगा सुता सती। तथान्योऽशोकदेवाख्यो जिनदत्ताप्रियो वणिक्।। सुकान्तस्तनयो जातस्तयोर्धर्मार्थमानसः । भवदेवविवाहाथ रतिवेगा च याचिता ।। १९१ पितृभ्यां तपितृभ्यां च तथेत्यङ्गीकृतं तदा । भवदेवस्य दुर्वृच्या दुर्मुखाख्याप्यजायत ॥१९२
[सुलोचनाका पूर्वजन्मचरित्र ] किसी समय प्रासादपर आरूढ हुए जयकुमार और सुलोचनाने आकाशमें विद्याधर विद्याधरीको जाते हुए देखा । ' अहो मेरी प्रभावती तू कहा है ' इस प्रकार कहता हुआ जयकुमार मूर्छित हुआ। उसी तरह आकाशमें जाते हुए कबूतरोंकी जोडी देखकर जातिस्मरणसे ' अहो मेरा रतिवर' ऐसा बोलकर सुलोचना भी मूञ्छित हुई । कपूर
और चन्दनसे संमिश्रित पानीके छिडकावसे उनके परिवारने उनका मूर्छामुख, रत्नोंका प्रकाश जैसे अंधकारको दूर करता है वैसा दूर किया ॥१८२-१८४॥ मूर्छासे जागृत होकर वे आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने लोगोंको दुःखित देखा। अपने पूर्वजन्म जानकर जयकुमार अपनी प्रिया सुलोचनाको कहने लगा । " हे प्रिये, पूर्वजन्मोंमें अनुभव किया हुआ अपने दोनोंका संपूर्ण वृत्तान्त कहकर जिनको कौतुक हुआ है ऐसे इन लोगोंको शान्त करो" । इस प्रकार प्रियकरसे आज्ञापित हुई पधुरभाषिणी सुलोचना अपने और जयकुमारके पूर्व भवोंका वर्णन करने लगी ॥ १८५१८६ ॥ इस जम्बूद्वीपमें पूर्वविदेहक्षेत्रके प्रसिद्ध पुष्कलावती देशमें मृणालवती नामक नगर है। वहां सुकेतु नामक राजा राज्य करता था। इसी नगरीमें रतिकर्मा नामक श्रेष्ठी रहता था । उसकी पत्नीका नाम कनकधी था। तथा उनके पुत्रका नाम भवदेव था। उसी नगरमें श्रीदत्त नामक दूसरा श्रेष्ठी रहता था । उसको विमल श्री नामक अतिशय प्रिय पत्नी थी और उन दोनोंको रतिवेगा नामक सती कन्या थी। उसी नगरमें अशोकदेव नामक व्यापारी अपनी पत्नी जिनदत्ताके साथ रहता था। उन दोनोंको धर्मक्रियाओंमें मन लगानेवाला सुकान्त नामक पुत्र हुआ । भवदेवके साथ विवाह करनेके लिये उसके मातापिताओंने रतिवेगाकी याचना उसके मातापिताके पास की। तथा उन्होंने भी उसका स्वीकार किया। भवदेवके दुराचरणसे उसकी दुर्मुख नामसे भी ख्याति
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