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पाण्डवपुराणम्
प्रियङ्गुश्रीः प्रिया तस्य विन्ध्य श्रीश्च तयोः सुता । तत्पिता तां गुणान्सर्वाशिक्षितुं मां समर्पयत् ।। मया सह मयि स्नेहाक्रीडन्ती सैकदाहिना । वसन्ततिलकोद्याने दष्टादायि मया तदा ॥ १७३ नमस्कारमहामन्त्रो भावयन्त्यत्र सा मृता । जातेयं स्नेहिनी देवी मयि धर्मानुरागतः ॥ १७४ जय आकर्ण्य तत्सर्वं गङ्गादेवीं विसर्ज्य च । सपताकं निजावासं प्राविशत्सप्रियः प्रियी ।। १७५ नीत्वा निशां स तत्रैव प्रातरुत्थाय ब्रघ्नवत् । अनुगङ्गं प्रयान्प्रेम्णा संप्राप स्वपुरं परम् ॥। १७६ पताकाचलहस्ताढ्यं हेमकुम्भास्यशोभनम् । महातोरणवक्षस्कं गवाक्षाक्षीणचक्षुषम् ॥ १७७ हटद्घटितस्वट्टालीकटीतटसमाश्रितम् । शातकुम्भमहास्तम्भसत्पादं रत्नसन्नखम् ।। १७८ पुरं नरमिवालोक्य सल्लीलालीविलोकितम् । सुलोचनायुतो भेजे जय जय इवापरः ॥ १७९ विवेश पत्तनं पत्न्या पुरुपुत्र इवापरः । निश्च्छ सुखसद्ध माध्यासीत्स्वसदनं जयः || १८० सुलोचनामुखाम्भोजभ्रमरो भ्रातृभिः सह । पालयन्निखिलां क्षोणीं रेजेऽसौ सुरराडिव ।।१८१
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नगर में विध्यध्वज नामक राजा राज्य करता था उसकी पत्नीका नाम प्रियंगुश्री था और विंध्य श्री उन दोनोंकी कन्या थी । उसके पिताने - विध्यध्वजने विध्यश्रीको सर्व सद्गुणोंका शिक्षण देनेके लिये मेरे स्वाधीन किया । मुझपर उसका स्नेह था । वसंततिलकोद्यानमें एक दिन मेरे साथ वह क्रीडा कर रही थी। इतनेमें सर्पने उसे दंश किया । मैने उसको नमस्कार महामंत्र दिया । उसका चिन्तन करते २ वह मर गई और वह गंगाकूटपर गंगा नामकी देवी हुई । धर्मानुराग से यह देवी मुझपर स्नेहयुक्त हो गई है । यह सुनकर प्रिय जयकुमारने गंगादेवीका विसर्जन किया और पताकों से शोभनेवाले अपने महलमें अपनी प्रिया सुलोचनाके साथ प्रवेश किया ॥१७१-१७५॥ उसी स्थान में रात बिताकर सूर्यके समान प्रातःकाल ऊठकर गंगा नदीके अनुसार गमन करनेवाले जयकुमारने प्रेमसे अपने उत्तम नगर हस्तिनापुर में प्रवेश किया || १७६ ॥ हस्तिनापुर मनुष्य के समान दीखता था | मनुष्यके हाथ होते हैं । इस नगरको पताकाकरूपी चंचल हस्त थे । मनुष्यको मुख होता है । इस नगरको सुवर्ण कलशरूपी मुखसे शोभा प्राप्त हुई थी । मनुष्यको वक्षःस्थल होता है | इस नगरको महातोरणद्वाररूपी वक्षःस्थल था । मनुष्यको आखें होती हैं । इस नगर के गवाक्ष ही बडी बडी आखें थी । सुवर्णखचित सुन्दर अट्टालिका इस नगररूपी मनुष्यकी मानोकटी समान थी । सुवर्णके खंबे इस नगर - मनुष्यके चरण थे और रत्न नखोंके सदृश थे 1 उत्तम लीलाओं की पङ्क्तिरूपी कटाक्षोंको धारण करनेवाले नगरको मनुष्य के समान देखकर दुसरे जयके समान राजा जयकुमारने सुलोचना के साथ नगर में प्रवेश किया ॥ १७७-१७९ ॥ पुरुपुत्र - भरतके समान कपटरहित उस सुखी जयकुमारने सुलोचनाके साथ नगरमें प्रवेश किया था वह अपने महलमें रहने लगा || १८०॥ सुलोचनाके मुखकमलका भ्रमर वह जयकुमार अपने भाइयों के साथ सम्पूर्ण पृथ्वीका पालन करनेवाला इन्द्रके समान शोभने लगा || १८१ ॥
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