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तृतीयं पर्व
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समारुह्य गजं सद्यः स गङ्गातटमासदत् । ईप्सुर्मनः प्रियां द्रष्टुं स्वप्राणेभ्यो गरीयसीम् ॥ १६० शुष्कवृक्षस्य शाखाग्रे संमुखीभूय भास्त्रतः । ब्रुवन्तं ध्वांक्षमावक्ष्यि कान्ताया भयचिन्तया ॥ मूर्च्छितः स समाश्वास्य तद्योग्यवरवस्तुभिः । सुरदेवेन मा भैषीर्भार्यायामिति सान्त्वितः ॥ प्रमाणीकृत्य तद्वाक्यमतीर्थ्येनोदयद्गजम् । उत्पुष्करं स्फुरद्दन्तं तरन्तं मकराकृतिम् ॥ १६३ दन्तिनं वीक्ष्य पूर्वोक्ता सरय्वाः संगमेऽग्रहीत् । कालीदेवी स्वदेशस्थः क्षुद्रोऽपि महतां बली ।। गजराजं निमज्जन्तं हेमाङ्गदादयः । तटस्थिताः सहापेतुः ससंभ्रमं महाहृदम् ॥१६५ सुलोचनार्हतो गोत्रं समाधाय स्वमानसे । त्यक्ताहारशरीरादिरुपसर्गाव सानकम् ॥१६६ प्राविशद्बहुभिः सार्धं गङ्गां गङ्गेव देवताम् । ज्ञात्वाथासनकम्पेन गंगाकूटाधिवासिनी ॥ १६७ तानानयत्तटं सर्वानागत्य खलकालिकाम् । संतर्ज्य जयमासज्यं जये पुण्याञ्जयो भवेत् ॥ १६८ गङ्गातीरे विकृत्याशु सदनं सर्वसंपदा । रत्नपीठे समाधायापूजयत्सा सुलोचनाम् ॥ १६९ अवरुद्धा मरेशस्य त्वया दत्तनमस्कृतेः । त्वप्रसादादहं जज्ञे प्रिया गङ्गाधिदेवता ॥ १७० जयस्तदुक्तमाकर्ण्य किमित्याह सुलोचना । उपविन्ध्याद्रिभ्रूपोऽभूद्विन्ध्यपुर्यां तु तद्ध्वजः ।।
जयकुमार तत्काल गंगाके तटपर प्राप्त हुआ। शुष्कवृक्षकी शाखाके अग्रपर सूर्यके सम्मुख मुखकर बैठा हुआ और शब्द करता हुआ कौवा देखकर पत्नीकी अनिष्ट भयचिन्तासे वह मूच्छित हो गया । तत्र सुरदेवने उसके योग्य उत्तम वस्तुओं द्वारा उसको विश्वास उत्पन्न कराकर सातिचित कर दिया, और कहा कि पत्नी के विषय में भयकी कोई बात नहीं है। उसका वाक्य प्रमाण मान, घाट को छोडकर दुसरे मार्ग से हाथीको चलाया। चमकीले दांतवाले तथा ऊपर सोंड उठाये हुए मगरके समान तैरते हुए हाथीको देखकर पूर्वोक्त कालीदेवताने सरयू नदीक संगममें उसे पकड़ा। योग्य ही है कि स्वदेश में रहा हुआ क्षुद्रभी बडोंसे बलवान् होता है ।। १६० - १६४ || हाथीको डुबता हुआ देख तटपर खडे हुए हेमांगदादिककुमार बडे वेगसे एकसाथ महाहृद में कूद पडे। उस समय सुलोचना अर्हन्तके नामका उच्चारण अपने मनमें करने लगी । उसने उपसर्ग समाप्त होनेतक आहार, शरीर और भोग पदार्थोंका त्याग किया । सुलोचना गंगादेवताके समान बहुत लोगों के साथ गंगानदी में प्रवेश करने लगी । गंगाकूटपर रहनेवाली गंगादेवता आसनकंप से जानकर वहाँ आई और उसने उन सबको तटके ऊपर लाकर छोड दिया । दुष्ट कालिकाका उसने खूब तिरस्कार किया, और जयकुमारको जय प्राप्त कराया । योग्यही है कि पुण्योदयसे जय प्राप्त होती है ।।१६५ - १६८ ।। गंगादेवीने विक्रियासे गंगा के तटपर तत्काल सर्व-संपदासे सुंदर प्रासाद बनाया और रत्नसिंहासनपर सुलोचनाको बिठाकर पूजा की। और कहने लगी- हे सुलोचने, आपने जो नमस्कार मंत्र दिया था उसके प्रभाव से मैं इन्द्रकी वल्लभा गंगा देवता हुई हूं || १६९ - १७० ॥ जयकुमारने देवीका भाषण सुनकर यह क्या ऐसा प्रश्न पूछा । तब सुलोचनाने कहा- विंध्यपर्वतके समीप विंध्यपुरी नामक
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