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पाण्डवपुराणम् अकीर्तिमर्ककीर्तिम कीर्तनीयामकीर्तिषु । अकार्षीदायुगं चेह मधुव्रतमलीमसाम् ।। १४९ संतोष्येति स विश्वेशः सुमुखं प्राहिणोत्स च । गत्वा तयोः पदं नत्वा सर्व पूर्वमचीकथत् ॥१५० सुलोचनाजयौ तत्र चिक्रीडतुश्चिरं सुखम् । पुनस्तौ स्वपुरं गन्तुमीहेते जननोदितौ॥१५१ अकम्पनं निवेद्यासौ पूजितो गजवाजिभिः । अनुगङ्गं जगामाशु वृतः श्वशुरबांधवैः ॥१५२ तत्र गङ्गानदीतीरे संस्थाप्य वरवाहिनीम् । आप्तैः कतिपयैः साधं प्रत्ययोध्यां ययौ जयः।।१५३ अर्ककीयादिभिर्भूपैस्तस्य संमुखमागतैः । सहायोध्या विवेशासौ मघवेवामरी पुरीम् ॥१५४ मध्येसभं सभानाथं नत्वासौ चक्रवर्तिनम् । निर्दिष्टभूतलेऽतिष्ठजयो जयविराजितः ॥१५५ ऊचे स चक्रिणा तूर्ण वधूर्विधुमुखी किमु । नानीता तां वयं द्रष्टुं वर्तामहे समुत्सुकाः॥१५६ अकम्पनेन नाहूतास्त्वद्विवाहोत्सवे नवे । वयं युक्तमिदं कि भोः सनाभिभ्यो बहिःकृताः॥१५७ अहं त्वपितृस्थानीयो मां पुरस्कृत्य कन्यका । त्वयास। परिणेतव्या स्वं तद्विस्मृतवानसि।।१५८ इत्यपूर्ववचोवादैस्तर्पितश्चक्रवर्तिना । लब्धमानो महामानं तं प्रणम्य जयो ययौ ।।१५९
जयकुमार और अकम्पन महाराजके सन्निध आकर उनके चरणोंको नमस्कार कर सर्व वृत्तान्त कहने लगा ॥ १४१-१५० ॥
[चक्रवर्तीकी सभामें जाकर जयकुमारने नम्र भाषण किया ] सुलोचना और जयकुमार दोनो वाराणसीनगरीमें दीर्घकालतक सुखसे क्रीडा करने लगे। कुछ काल बीतने पर स्वजनोंकी प्रेरणासे उनको अपने नगरको आनेकी इच्छा हुई। जयकुमारने अपना अभिप्राय अकम्पन महाराजको कहा। तब महाराजने जयकुमारका हाथी घोडा आदि देकर आदर किया । तदनंतर जयकुमारने अपने श्वशुरके बांधवोंको साथ लेकर गंगानदीके अनुसार प्रयाण किया। गंगानदीके तटपर अपनी उत्कृष्ट सेना रखकर कुछ वृद्ध जनोंके साथ जयकुमार आयोध्याको चला गया ॥ १५१-१५३ ॥ सम्मुख आये हुए अर्ककीर्त्यादिकनृपोंके साथ इंद्र जैसा देवोंके साथ अमरावतीमें प्रवेश करता है, वैसा जयकुमारने आयोध्यामें प्रवेश किया । सभाके बीचमें सभापति चक्रवर्तीको वंदन कर उसने दिखाये हुए स्थान पर जयसे शोभनेवाला जयकुमार बैठ गया । तब चक्रवर्तिने उसे कहा। "हे वत्स, चन्द्रमुखी वधू सुलोचनाको तुम क्यों नहीं लाये ? उसे देखनेको हम उत्सुक हैं । अकम्पन महाराजने तुम्हारे नवविवाहोत्सबमें हमको आमन्त्रण नहीं दिया क्या यह युक्त है ? क्या हमको महाराजने अपने बंधुओमेंसे बहिष्कृत किया है ? मैं तुम्हारे पिताके स्थानमें हूं। तुम्हें चाहिए था कि हमको अगुआ बनाकर तुम इसके साथ विवाह करते, परंतु तुम तो हमें भूलही गये ।" इस प्रकार अपूर्व वचन बोलकर चक्रवर्तिने जयकुमारको संतुष्ट करके उसका आदर किया । तदनंतर जयकुमार भरतेश्वरको नमस्कार कर वहांसे चला गया ॥ १५४-१५९ ।। हाथी पर आरूढ़ होकर अपने प्राणोंसेभी प्यारी मनःप्रियाको देखनेकी उत्कंठा धारण करनेवाला
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