SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . ५५ तृतीयं पर्व तदा नागासुरो भूत्या समेत्य समपादयत् । सुलोचनाविवाहं च जपेन सुजयशिना ।।१३८ जयोऽकम्पनभूपेनालोच्य रत्नाद्युपायनैः । सुमुखाख्यं नरं प्रीत्यै चक्रेशं प्रत्यजीगमत्॥१३९ गत्वासौ प्राभृतं मुक्त्वा प्रणम्य निभृताञ्जलिः । चक्रेशं चर्करीति स्म विज्ञप्तिं विनयान्वितः॥ अकम्पनो भयादेवं विज्ञप्तिं कुरुते प्रभो । स्वयंवर विधानेन तस्मै तां प्रददौ मुदा ॥१४१ । तत्रागत्य कुमारोऽपि सर्व प्रागनुमत्य तत् । केनापि कोपितः क्रुद्धः संगरं विदधे ध्रुवम्॥१४२ विज्ञातमेव देवेन सर्व चावधिचक्षुषा । कर्तव्यं क्रियतां यनो वधः क्लेशोऽर्थसंहतिः ॥१४३ इति प्रश्रयिणी वाणी निगद्य सुमुखः स्थितः । उवाच वचनं चक्री परचक्रभयंकरः ।।१४४ अकम्पनैः किमित्येवमुक्त्वा संग्रहितो भवान् । पुरुभ्यो निर्विशेषास्ते सर्वज्येष्ठाश्च सांप्रतम्॥१४५ मोक्षमार्गस्य पुरवो गुरवो दानसंततेः । श्रेयांसश्चक्रवर्तित्वे यथेहास्म्यहमग्रणीः ।।१४६ स्वयंवरविधातारो नाभविष्यंस्त्वकम्पनाः। कः प्रवर्तयितान्योऽस्य मार्गस्य यदि निश्चितम्।।१४७ पथः पुरातनान्येन भोगभूमितिारेहितान् । कुवेते नूतनान्सन्तः पूज्याः सद्भिस्त एव हि ॥ ॥ १३८ ॥ अकम्पन राजाके साथ जयकुमारने विचार करके रत्नादिक उपायनोंके साथ सुमुख नामका दूत चक्रवर्तीके पास संतोष करनके लिये भेज दिया ॥ १३९ ॥ चक्रवर्तीके पास जाकर उनको भेट अर्पण कर दूतने नमस्कार किया। तदनन्तर विनयसे युक्त होकर हाथ जोडकर भरतेशसे विज्ञप्ति की ॥ १४० ॥ हे प्रभो ! अकम्पनमहाराज भयसे आपके प्रति इस प्रकार विज्ञप्ति करते हैं । सुलोचना स्वयंवरविधानसे जयकुमारको मैने आनन्दसे अर्पण की है। स्वयंवरमण्डपमें अर्ककीर्तिकुमार भी आये थे तथा उनको वह स्वयंवरविधान मान्य था । परन्तु किसीके द्वारा भडकानेसे क्रुद्ध होकर कुमारहीने युद्ध किया । हे देव, आपने अवविज्ञाननेत्रसे यह सर्व जानाही होगा। इस विषयमें आप आपका कर्तव्य करें। अर्थात् इस अपराधका शासन हमें क्लेश, वध, और धनहरण करना चाहते हैं, सो करे। सुमुख इस प्रकारकी नम्रतायुक्त वाणी बोलकर बैठा तब शत्रुसैन्यको भीति उत्पन्न करनेवाला चक्रवर्ती इस प्रकार कहने लगा । हे दूत, क्या अकम्पन महाराजने ऐसा वचन कहकर तुझे यहां भेज दिया है ? हम अकम्पन महाराजको श्रीआदिभगवानके समान समझते हैं। इस समय वे सबसे ज्येष्ठ हैं । जैसे मोक्षमार्गका उपदेश करनेमें आदिजिनेश्वर अग्रणी हैं । दानपरंपराके विधानमें श्रेयांस महाराज मुख्य हैं, चक्रवर्तियोंमें मैं भरतक्षेत्रमें अग्रगामी हूं । स्वयंवर-विधानके प्रवर्तक अकम्पन महाराज यदि न होते तो निश्चयसे इस मार्गका प्रवर्तक अन्य कौन होता ? भोगभूमीके सद्भावमें लुप्त हुए प्राचीन मार्गोको जो सज्जन फिरसे उनका आविष्कार करते हैं वे ही सज्जनों द्वारा पूज्य होते हैं। अर्ककीर्तिकुमारने अर्कार्तिवान् लोगोंमें मेरी भौरोंके समान कृष्ण अकीर्ति कल्पान्तकाल तक वर्णन करने योग्य की है । इस प्रकारके भाषणसे जगत्प्रभु भरतेश्वरने सुमुख दूतको सन्तुष्ट कर भेज दिया। तब वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy