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________________ तृतीयं पर्व ४९ अनवद्यमतिर्मन्त्री मन्त्रिलक्षणलक्षितः । न्याय्यं पथ्यं वचो वक्तुमर्ककीर्तिं प्रचक्रमे ॥७१ धर्मतीर्थं भवद्वंशाद्दानतीर्थं कुरूद्भवात् । तव तस्यापि संबन्धो वर्तते स्वामिभृत्ययोः ॥७२ अन्ययोषाभिलाषस्य पौर्व्यं त्वं मा कृता वृथा । अवश्यमेषाप्यानीता न भार्या ते भविष्यति।।७३ यशः स्थास्नु प्रतापाढ्यं जयस्य स्याद्यथा दिनम् । मलीमसापकीर्तिस्ते स्थायिन्यत्र निशेव वै।। ७४ मा मंस्थाः साधनं सर्व ममैतदिति वै बुधः । भूपाला बहवोऽप्यत्र सन्ति तत्पक्षगामिनः।।७५ दुःप्रापं तन्त्रया पुम्भिः पुरुषार्थत्रयं महत् । अर्जितं न्यायमुल्लङ्घ्य वृथा तत्किं विनाशयेः॥ ७६ भूभुजां सन्ति कन्यादिरत्नान्यन्यानि भूतले । तानि सर्वाणि रत्नैश्वानयामि तेऽद्य निश्चितम्।।७७ स्वयंवरविधौ नैव नियमोज्यं विवाह्यते । मान्यो नायं लघुः किंतु कन्येष्टो यो वरः स च ॥७८ इति न्याय्यं वचस्तस्य हृदये न स्थिति व्यधात् । यद्वत्पयः कणो मुक्तो युक्तया सन्नलिनीदले ।। ७९ एवमुल्लङ्घ्य मन्त्रीशं दुग्रहार्तो महाकुधीः । स्वसेनपं समाहूय प्रत्यासन्नपराभवः ||८० सर्वेषां च महीपानां प्रकथ्य रणनिश्चयम् । भेरीं संदापयामास जगत्रय भयावहाम् ||८१ तेरा और जयकुमारका सेव्यसेवक संबन्ध है । तू उसका मालिक है और वह तेरा सेवक है । हे कुमार, तू परस्त्री की अभिलाषा करनेवालोंमें प्रथम स्थान मत बन । इस सुलोचनाको हरण करने पर भी यह किसी भी हालत में तेरी भार्या नहीं होगी । हे कुमार, जैसा दिन प्रतापयुक्त रहता है वैसा जयकुमारका यश इस जगतमें स्थिर और प्रतापसे परिपूर्ण रहेगा तथा रात्रीके समान तेरी अपकीर्ति हमेशा स्थिर रहेगी । हे कुमार, तू सैन्यादिक सब युद्धके साधन मेरे ही हैं ऐसा मत समझ, क्योंकि यहां आये हुए बहुतसे राजालोग उसके पक्षको धारण करनेवाले भी हैं । अन्य लोगोंको दुष्प्राप्य ऐसे धर्म, अर्थ और काम ये तीन पुरुषार्थ तुझे प्राप्त हुए हैं । परन्तु न्यायका उल्लंघन कर तू व्यर्थही उनका नाश मत कर। इस भूतलपर अन्य राजाओं के पास कन्यादिक तथा रत्न बहुत हैं उनको मैं रत्नोंके साथ आज तेरे पास निश्चयसे लाता हूं । स्वयंवर विधि में सर्व श्रेष्ठ पुरुषही बरा जाये अन्य पुरुष न वरा जावे ऐसा कोई नियम नहीं है । कन्याको जो पुरुष पसंद होगा वही उसका पति होगा । इस प्रकारका न्याय्यवचन कमलिनीके दलपर युक्तिसे डाली हुई जलकी बूंदके समान कुमारके मनमें नहीं टिक सका " ॥ ७१ - ७९ ॥ इस प्रकार मंत्री के वचनोको उसने नहीं माना । दुराग्रहसे पीडित, अत्यंत कुबुद्धिवाला, जिसका पराभव शीघ्र होनेवाला है, ऐसे कुमारने अपने सेनापतिको बुलाकर संपूर्ण राजाओंको युद्धके लिये तय्यार रहनेकी आज्ञा देकर जगत्रयको भयभीत करनेवाली भेरी बजवाई ॥ ८०-८१ ॥ भेरीकी ध्वनि सुनकर सर्व नृपगण युद्धोत्सुक हो गये । नाचते कुदते भटोंके द्वारा हाथोंकी ताली पीटने से उत्पन्न हुए चंचल शब्द सुनकर निष्ठुर तथा सर्व सामग्री से सज्ज हाथी, जो कि पर्वत के समान दीखते थे, युद्धके लिये आगे बढे । युद्धसमुद्र के तरंगसमान दीखनेवाले घोडे कवचसे सज्ज किये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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